मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
ज्ञाननिष्ठा का विषय
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।18.55।।
भक्त्या-प्रेममयी भक्ति; माम्-मुझे अभिजानाति-कोई जान सकता है; यावान्–जितना; यः-च-अस्मि-जैसा मैं हूँ; तत्त्वतः-सत्य के रूप में; ततः-तत्पश्चात; माम्-मुझे; तत्त्वतः-सत्य के रूप में; ज्ञात्वा-जानकर; विशते-प्रवेश करता है; तत्-अनन्तरम् तत्पश्चात।
मेरी प्रेममयी भक्ति से अथवा परा भक्ति के द्वारा कोई विरला ही मुझे सत्य के रूप में जान पाता है। मैं जितना हूँ और जो हूँ इसको तत्व से या सत्य रूप में जान लेता है तब यथावत मुझे सत्य रूप में तत्व से जानकर मेरा भक्त मेरे पूर्ण चेतन स्वरूप को प्राप्त करता है। इस प्रकार तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप या मेरा ही स्वरूप बन जाता है।।18.55।।
भक्त्या मामभिजानाति – जब परमात्मतत्त्व में आकर्षण , अनुराग हो जाता है तब साधक स्वयं उस परमात्मा के सर्वथा समर्पित हो जाता है उस तत्त्व से अभिन्न हो जाता है। फिर उसका अलग कोई (स्वतन्त्र) अस्तित्व नहीं रहता अर्थात् उसके अहंभाव का अतिसूक्ष्म अंश भी नहीं रहता। इसलिये उसको प्रेमस्वरूपा प्रेमाभक्ति प्राप्त हो जाती है। उस भक्ति से परमात्मतत्त्व का वास्तविक बोध हो जाता है। ब्रह्मभूत अवस्था हो जाने पर संसार के सम्बन्ध का तो सर्वथा त्याग हो जाता है पर मैं ब्रह्म हूँ , मैं शान्त हूँ , मैं निर्विकार हूँ , ऐसा सूक्ष्म अहंभाव रह जाता है। यह अहंभाव जब तक रहता है तब तक परिच्छिन्नता और पराधीनता रहती है। कारण कि यह अहंभाव प्रकृति का कार्य है और प्रकृति पर है इसलिये पराधीनता रहती है। परमात्मा की तरफ आकृष्ट होने से पराभक्ति होने से ही यह अहंभाव मिटता है (टिप्पणी प0 949.1)। इस अहंभाव के सर्वथा मिटने से ही तत्त्व का वास्तविक बोध होता है। यावान् – सातवें अध्याय के आरम्भ में भगवान ने अर्जुन को समग्ररूप सुनने की आज्ञा दी कि मेरे में जिसका मन आसक्त हो गया है जिसको मेरा ही आश्रय है वह अनन्यभाव से मेरे साथ दृढ़तापूर्वक सम्बन्ध रखते हुए मेरे जिस समग्ररूप को जान लेता है उसको तुम सुनो। यही बात भगवान ने सातवें अध्याय के अन्त में कही कि जरा-मरण से मुक्ति पाने के लिये जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं वे ब्रह्म , सम्पूर्ण अध्यात्म और सम्पूर्ण कर्म को अर्थात् सम्पूर्ण निर्गुण विषय को जान लेते हैं और अधिभूत , अधिदैव और अधियज्ञ के सहित मुझको अर्थात् सम्पूर्ण सगुण विषय को जान लेते हैं। इस प्रकार निर्गुण और सगुण के सिवाय राम , कृष्ण , शिव , गणेश , शक्ति , सूर्य आदि अनेक रूपों में प्रकट होकर परमात्मा लीला करते हैं उनको भी जान लेना – यही पराभक्ति से यावान् अर्थात् समग्ररूप को जानना है। यश्चास्मि तत्त्वतः – वे ही परमात्मा अनेक रूपों में , अनेक आकृतियों में , अनेक शक्तियों को साथ लेकर , अनेक कार्य करने के लिये बारबार प्रकट होते हैं और वे ही परमात्मा अनेक सम्प्रदायों में अपनी-अपनी भावना के अनुसार अनेक इष्टदेवों के रूप में कहे जाते हैं। वास्तव में परमात्मा एक ही हैं। इस प्रकार मैं जो हूँ – इसे तत्त्व से जान लेता है। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् – ऐसा मुझे तत्त्व से जानकर तत्काल (टिप्पणी प0 949.2) मेरे में प्रविष्ट हो जाता है अर्थात् मेरे साथ भिन्नता का जो भाव था वह सर्वथा मिट जाता है। तत्त्व से जानने पर उसमें जो अनजानपना था वह सर्वथा मिट जाता है और वह उस तत्त्व में प्रविष्ट हो जाता है। यही पूर्णता है और इसी में मनुष्यजन्म की सार्थकता है। विशेष बात – जीव का परमात्मा में प्रेम (रति , प्रीति या आकर्षण) स्वतः है परन्तु जब यह जीव प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब वह परमात्मा से विमुख हो जाता है और उसका संसार में आकर्षण हो जाता है। यह आकर्षण ही वासना , स्पृहा , कामना , आशा , तृष्णा आदि नामों से कहा जाता है। इस वासना आदि का जो विषय (प्रकृतिजन्य पदार्थ) है वह क्षणभङ्गुर और परिवर्तनशील है तथा यह जीवात्मा स्वयं , नित्य और अपरिवर्तनशील है परन्तु ऐसा होते हुए भी प्रकृति के साथ तादात्म्य होने से यह परिवर्तनशील में आकृष्ट हो जाता है। इससे इसको मिलता तो कुछ नहीं पर कुछ मिलेगा – इस भ्रम वासना के कारण यह जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा हुआ महान दुःख पाता रहता है। इससे छूटने के लिये भगवान ने योग बताया है। वह योग जडता से सम्बन्धविच्छेद करके परमात्मा के साथ नित्ययोग का अनुभव करा देता है। गीता में मुख्यरूप से तीन योग कहे हैं – कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग। इन तीनों पर विचार किया जाय तो भगवान का प्रेम तीनों ही योगों में है। कर्मयोग में उसको कर्तव्यरति कहते हैं अर्थात् वह रति कर्तव्य होती है – स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः (18। 45)। [कर्मयोग की यह रति अन्त में आत्मरति में परिणत हो जाती है (गीता 2। 55 3। 17) और जिस कर्मयोगी में भक्ति के संस्कार हैं उसकी यह रति भगवद् रति में परिणत हो जाती है।] ज्ञानयोग में उसी प्रेम को आत्मरति कहते हैं अर्थात् वह रति स्वरूप में होती है — योऽन्तःसुखोऽन्तरारामः (5। 24) और भक्तियोग में उसी प्रेमको भगवद् रति कहते हैं अर्थात् वह रति भगवान में होती है (टिप्पणी प0 950.1) – तुष्यन्ति च रमन्ति च (10। 9)। इस प्रकार इन तीनों योगों में रति होने पर भी गीता में भगवद् रति की विशेषरूप से महिमा गायी गयी है। तपस्वी , ज्ञानी और कर्मी – इन तीनों से भी योगी (समतावाला) श्रेष्ठ है (गीता 6। 46)। तात्पर्य यह है कि जडता से सम्बन्ध रखते हुए बड़ा भारी तप करने पर , बहुत से शास्त्रों का (अनेक प्रकार का) ज्ञानसम्पादन करने पर और यज्ञ , दान , तीर्थ आदि के बड़े-बड़े अनुष्ठान करने पर जो कुछ प्राप्त होता है वह सब अनित्य ही होता है पर योगी को नित्यतत्त्व की प्राप्ति होती है। अतः तपस्वी , ज्ञानी और कर्मी – इन तीनों से योगी श्रेष्ठ है। इस प्रकार के कर्मयोगी , ज्ञानयोगी , हठयोगी , लययोगी आदि सब योगियों में भी भगवान ने भक्तियोगी को सर्वश्रेष्ठ बताया है (गीता 6। 47)। यही भक्तियोगी भगवान के समग्ररूप को जान लेता है। सांख्ययोगी भी पराभक्ति के द्वारा उस समग्ररूप को जान लेता है। उसी समग्ररूप का वर्णन यहाँ यावान पद से हुआ है (टिप्पणी प0 950.2)। इस प्रकरण के आरम्भ में अन्तःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ साधक जिस प्रकार ब्रह्म को प्राप्त होता है – यह कहने की प्रतिज्ञा की और बताया कि ध्यानयोग के परायण होने से वह वैराग्य को प्राप्त होता है। वैराग्य से अहंकार आदि का त्याग करके ममतारहित होकर शान्त होता है। तब वह ब्रह्मप्राप्ति का पात्र होता है। पात्र होते ही उसकी ब्रह्मभूत अवस्था हो जाती है। ब्रह्मभूत अवस्था होने पर संसार के सम्बन्ध से जो राग-द्वेष , हर्ष-शोक आदि द्वन्द्व होते थे वे सर्वथा मिट जाते हैं तो वह सम्पूर्ण प्राणियों में सम हो जाता है। सम होने पर पराभक्ति प्राप्त हो जाती है। वह पराभक्ति ही वास्तविक प्रीति है। उस प्रीति से परमात्मा के समग्ररूप का बोध हो जाता है। बोध होते ही उस तत्त्व में प्रवेश हो जाता है – विशते तदनन्तरम्। अनन्यभक्ति से तो मनुष्य भगवान को तत्त्व से जान सकता है उनमें प्रविष्ट हो सकता है और उनके दर्शन भी कर सकता है (गीता 11। 54) परन्तु सांख्ययोगी भगवान को तत्त्व से जानकर उनमें प्रविष्ट तो होता है पर भगवान उसको दर्शन देने में बाध्य नहीं होते। कारण कि उसकी साधना पहले से ही विवेकप्रधान रही है इसलिये उसको दर्शन की इच्छा नहीं होती। दर्शन न होने पर भी उसमें कोई कमी नहीं रहती । अतः कमी माननी नहीं चाहिये। यहाँ उस तत्त्व में प्रविष्ट हो जाना ही अनिर्वचनीय प्रेम की प्राप्ति है। इसी प्रेम को नारदभक्तिसूत्र में प्रतिक्षण वर्धमान कहा है (टिप्पणी प0 951)। इस प्रेम में सर्वथा पूर्णता हो जाती है अर्थात् उसके लिये करना , जानना और पाना कुछ भी बाकी नहीं रहता। इसलिये न करने का राग रहता है , न जानने की जिज्ञासा रहती है , न जीने की आशा रहती है , न मरने का भय रहता है और न पाने का लालच ही रहता है। जब तक भगवान में पराभक्ति अर्थात् परम प्रेम नहीं होता तब तक ब्रह्मभूत अवस्था में भी मैं ब्रह्म हूँ , यह सूक्ष्म अहंकार रहता है। जब तक लेशमात्र भी अहंकार रहता है तब तक परिच्छिन्नताका अत्यन्त अभाव नहीं होता परन्तु मैं ब्रह्म हूँ , यह सूक्ष्म अहंभाव तब तक जन्म-मरण का कारण नहीं बनता जब तक उसमें प्रकृतिजन्य गुणों का सङ्ग नहीं होता क्योंकि गुणों का सङ्ग होने से ही बन्धन होता है – कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)। उदाहरणार्थ – गाढ़ नींद से जगने पर साधारण मनुष्यमात्र को सबसे पहले यह अनुभव होता है कि मैं हूँ। ऐसा अनुभव होते ही जब नाम , रूप , देश , काल जाति आदि के साथ स्वयं का सम्बन्ध जुड़ जाता है तब मैं हूँ यह अहंभाव शुभ-अशुभ कर्मों का कारण बन जाता है जिससे जन्म-मरण का चक्कर चल पड़ता है परन्तु जो ऊँचे दर्जे का साधक होता है अर्थात् जिसकी निरन्तर ब्रह्मभूत अवस्था रहती है उसके सात्त्विक ज्ञान (18। 20) में सब जगह ही अपने स्वरूप का बोध रहता है परन्तु जब तक साधक का सत्त्वगुणके साथ सम्बन्ध रहता है तब तक नींद से जगने पर तत्काल मैं ब्रह्म हूँ अथवा सब कुछ एक परमात्मा ही है – ऐसी वृत्ति पकड़ी जाती है और मालूम होता है कि नींद में यह वृत्ति छूट गयी थी मानो उसकी भूल हो गयी थी और अब पीछे उस तत्त्व की जागृति हो गयी है , स्मृति आ गयी है। गुणातीत हो जाने पर अर्थात् गुणों से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होने पर विस्मृति और स्मृति – ऐसी दो अवस्थाएँ नहीं होतीं अर्थात् नींद में भूल हो गयी और अब स्मृति आ गयी – ऐसा अनुभव नहीं होता प्रत्युत नींद तो केवल अन्तःकरण में आयी थी , अपने में नहीं , अपना स्वरूप तो ज्यों का त्यों रहा – ऐसा अनुभव रहता है। तात्पर्य यह है कि निद्रा का आना और उससे जगना – ये दोनों प्रकृति में ही हैं । ऐसा उसका स्पष्ट अनुभव रहता है। इसी अवस्था को 14वें अध्याय के 22वें श्लोक में कहा है कि प्रकाश अर्थात् नींद से जगना और मोह अर्थात् नींद का आना – इन दोनों में गुणातीत पुरुष के किञ्चिन्मात्र भी राग-द्वेष नहीं होते। पहले श्लोक में अर्जुनने संन्यास और त्यागके तत्त्वके विषयमें पूछा तो उसके उत्तरमें भगवान्ने चौथेसे बारहवें श्लोक तक कर्मयोग का और 41वें से 48वें श्लोक तक कर्मयोग का तथा संक्षेप में भक्तियोग का वर्णन किया और तेरहवें से 40वें श्लोक तक विचारप्रधान सांख्ययोग का तथा 49वें से 55वें श्लोक तक ध्यानप्रधान सांख्ययोग का एवं संक्षेप में पराभक्ति की प्राप्ति का वर्णन किया। अब भगवान शरणागति की प्रधानता वाले भक्तियोग का वर्णन आरम्भ करते हैं।