मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
भक्ति सहित कर्मयोग का विषय
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।18.58।।
मत्चित्त:-सदैव मेरा स्मरण करना; सर्व-सब; दुर्गाणि-बाधाओं को; मत्प्रसादात्-मेरी कृपा से; तरिष्यसि -तुम पार कर सकोगे; अथ-लेकिन; चेत् – यदि; त्वम्-तुम; अहङ्कारात्-अभिमान के कारण; नश्रोष्यसि-नहीं सुनते हो; विनश्यसि – तुम्हारा विनाश हो जाएगा।
मेरे में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा और यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा अर्थात यदि तुम सदैव मेरा स्मरण करते हो तब मेरी कृपा से तुम सभी कठिनाईयों और बाधाओं को पार कर पाओगे। यदि तुम अभिमान के कारण मेरे उपदेश को नहीं सुनोगे तब तुम्हारा विनाश हो जाएगा।।18.58।।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि – भगवान कहते हैं कि मेरे में चित्तवाला होने से तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न , बाधा , शोक , दुःख आदि को तर जायगा अर्थात् उनको दूर करने के लिये तुझे कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा। भगवद्भक्त ने अपनी तरफ से सब कर्म भगवान के अर्पण कर दिये , स्वयं भगवान के अर्पित हो गया , समता के आश्रय से संसार की संयोगजन्य लोलुपता से सर्वथा विमुख हो गया और भगवान के साथ अटल सम्बन्ध जोड़ लिया। यह सब कुछ हो जाने पर भी वास्तविक तत्त्व की प्राप्ति में यदि कुछ कमी रह जाय या सांसारिक लोगों की अपेक्षा अपने में कुछ विशेषता देखकर अभिमान आ जाय अथवा इस प्रकार के कोई सूक्ष्म दोष रह जायँ तो उन दोषों को दूर करने की साधक पर कोई जिम्मेवारी नहीं रहती प्रत्युत उन दोषों को , विघ्न-बाधाओं को दूर करने की पूरी जिम्मेवारी भगवान की हो जाती है। इसलिये भगवान कहते हैं – मत्प्रसादात्तरिष्यसि अर्थात् मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न – बाधाओं को तर जायगा। इसका तात्पर्य यह निकला कि भक्त अपनी तरफ से , उसको जितना समझ में आ जाय , उतना पूरी सावधानी के साथ कर ले , उसके बाद जो कुछ कमी रह जायगी वह भगवान की कृपा से पूरी हो जायगी। मनुष्य का अगर कुछ अपराध हुआ है तो वह यही हुआ है कि उसने संसार के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया और भगवान से विमुख हो गया। अब उस अपराध को दूर करने के लिये वह अपनी ओर से संसार का सम्बन्ध तोड़कर भगवान के सम्मुख हो जाय। सम्मुख हो जाने पर जो कुछ कमी रह जायगी वह भगवान की कृपा से पूरी हो जायगी। अब आगे का सब काम भगवान कर लेंगे। तात्पर्य यह हुआ कि भगवत्कृपा प्राप्त करने में संसार के साथ किञ्चित् भी सम्बन्ध मानना और भगवान से विमुख हो जाना – यही बाधा थी। वह बाधा उसने मिटा दी तो अब पूर्णता की प्राप्ति भगवत्कृपा अपने आप करा देगी। जिसका प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीरादि के साथ सम्बन्ध है उस पर ही शास्त्रों का विधिनिषेध , अपने वर्णआश्रम के अनुसार कर्तव्य का पालन आदि नियम लागू होते हैं और उसको उन-उन नियमों का पालन जरूर करना चाहिये। कारण कि प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीरादि के सम्बन्ध को लेकर ही पाप-पुण्य होते हैं और उनका फल सुख-दुःख भी भोगना पड़ता है। इसलिये उस पर शास्त्रीय मर्यादा और नियम विशेषता से लागू होते हैं परन्तु जो प्रकृति और प्रकृति के कार्य से सर्वथा ही विमुख होकर भगवान के सम्मुख हो जाता है वह शास्त्रीय विधिनिषेध और वर्णआश्रमों की मर्यादा का दास नहीं रहता। वह विधिनिषेध से भी ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उस पर विधिनिषेध लागू नहीं होते क्योंकि विधिनिषेध की मुख्यता प्रकृति के राज्य में ही रहती है। प्रभु के राज्य में तो शरणागति की ही मुख्यता रहती है। जीव साक्षात परमात्मा का अंश है (गीता 15। 7)। यदि वह केवल अपने अंशी परमात्मा की ही तरफ चलता है तो उस पर देव , ऋषि , प्राणी , माता-पिता आदि आप्तजन और दादा-परदादा आदि पितरों का भी कोई ऋण नहीं रहता (टिप्पणी प0 957) क्योंकि शुद्ध चेतन अंश ने इनसे कभी कुछ लिया ही नहीं। लेना तभी बनता है जब वह जड शरीर के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है और सम्बन्ध जोड़ने से ही कमी आती है , नहीं तो उसमें कभी कमी आती ही नहीं – नाभावो विद्यते सतः (गीता 2। 16)। जब उसमें कभी कमी आती ही नहीं तो फिर वह उनका ऋणी कैसे बन सकता है ? यही सम्पूर्ण विघ्नों को तरना है । साधनकाल में जीवननिर्वाह की समस्या , शरीर में रोग आदि अनेक विघ्न-बाधाएँ आती हैं परन्तु उनके आने पर भी भगवान की कृपा का सहारा रहने से साधक विचलित नहीं होता। उसे तो उन विघ्न-बाधाओं में भगवान की विशेष कृपा ही दिखती है। इसलिये उसे विघ्नबाधाएँ बाधारूप से दिखती ही नहीं प्रत्युत कृपारूप से ही दिखती हैं। पारमार्थिक साधन में विघ्नबाधाओं के आने की तथा भगवत्प्राप्ति में आड़ लगने की सम्भावना रहती है। इसके लिये भगवान कहते हैं कि मेरा आश्रय लेने वाले के दोनों काम मैं कर दूँगा अर्थात् अपनी कृपा से साधन की सम्पूर्ण विघ्नबाधाओं को भी दूर कर दूँगा और उस साधन के द्वारा अपनी प्राप्ति भी करा दूँगा। अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि – भगवान अत्यधिक कृपालुता के कारण आत्मीयतापूर्वक अर्जुन से कह रहे हैं कि अथ – पक्षान्तर में मैंने जो कुछ कहा है उसे न मानकर अगर अहंकार के कारण अर्थात् मैं भी कुछ जानता हूँ , करता हूँ तथा मैं कुछ समझ सकता हूँ , कुछ कर सकता हूँ आदि भावों के कारण तू मेरी बात नहीं सुनेगा , मेरे इशारे के अनुसार नहीं चलेगा , मेरा कहना नहीं मानेगा तो तेरा पतन हो जायगा – विनङ्क्ष्यसि। यद्यपि अर्जुन के लिये यह किञ्चिन्मात्र भी सम्भव नहीं है कि वह भगवान की बात न सुने अथवा न माने तथापि भगवान कहते हैं कि चेत् – अगर तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। तात्पर्य यह है कि अगर तू अज्ञता अर्थात् अनजानपने से मेरी बात न सुने अथवा किसी भूल के कारण न सुने तो यह सब क्षम्य है परन्तु यदि तू अहंकार से मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा क्योंकि अहंकार से मेरी बात न सुनने से तेरा अभिमान बढ़ जायेगा जो सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्ति का मूल है। पहले चौथे अध्याय में भगवान स्वयं अपने श्रीमुख से कहकर आये हैं कि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है – भक्तोऽसि मे सखा चेति (4। 3) और फिर नवें अध्याय में उन्होंने कहा है कि हे अर्जुन तू प्रतिज्ञा कर कि मेरे भक्त का पतन नहीं होता – कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति (9। 31)। इससे सिद्ध हुआ कि अर्जुन भगवान के भक्त हैं । अतः वे कभी भगवान से विमुख नहीं हो सकते और उनका पतन भी कभी नहीं हो सकता परन्तु वे अर्जुन भी यदि भगवान की बात नहीं सुनेंगे तो भगवान से विमुख हो जायेंगे और भगवान से विमुख होने के कारण उनका भी पतन हो जायगा। तात्पर्य यह है कि भगवान से विमुख होने के कारण ही प्राणी का पतन होता है अर्थात् वह जन्म-मरण के चक्कर में पड़ता है (गीता 9। 3 16। 20)। विशेष बात- इसी अध्याय के 56वें श्लोक में भगवान ने प्रथम पुरुष अवाप्नोति का प्रयोग करके सामान्य रीति से सबके लिये कहा कि मेरी कृपा से परमपद की प्राप्ति हो जाती है और यहाँ मध्यम पुरुष तरिष्यसि का प्रयोग करके अर्जुन के लिये कहते हैं कि मेरी कृपा से तू विघ्नबाधाओं को तर जायगा। इन दोनों बातों का तात्पर्य यह है कि भगवान की कृपा में जो शक्ति है वह शक्ति किसी साधन में नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि साधन न करें प्रत्युत परमात्मप्राप्ति के लिये साधन करना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म होना चाहिये क्योंकि मनुष्यजन्म केवल परमात्मप्राप्ति के लिये ही मिला है। मनुष्यजन्म को प्राप्त करके भी जो परमात्मा को प्राप्त नहीं करता वह यदि ऊँचे से ऊँचे लोकों में भी चला जाय तो भी उसे लौटकर संसार (जन्म-मरण) में आना ही पड़ेगा (टिप्पणी प0 958) (गीता 8। 16)। इसलिये जब यह मनुष्यशरीर प्राप्त हुआ है तो फिर मनुष्य को जीतेजी ही भगवत्प्राप्ति कर लेनी चाहिये और जन्म-मरण से रहित हो जाना चाहिये। कर्मयोगी के लिये भी भगवान ने कहा है कि समतायुक्त पुरुष इस जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप – दोनों से रहित हो जाता है (गीता 2। 50)। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मबन्धन से सर्वथा रहित होना अर्थात् जन्म-मरण से रहित होना मनुष्यमात्र का परम ध्येय है। दसवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भगवान ने कहा है कि मैं अपनी कृपा से भक्तों के अन्तःकरण में ज्ञान प्रकाशित कर देता हूँ और 11वें अध्याय के 47वें श्लोक में भगवान ने कहा कि मैंने अपनी कृपा से ही विराट रूप दिखाया है। उसी कृपा को लेकर भगवान यहाँ कहते हैं कि मेरी कृपा से परमपद की प्राप्ति हो जायगी (18। 56) और मेरी कृपा से ही सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा (18। 58)। परमपद को प्राप्त होने पर किसी प्रकार की विघ्न-बाधा सामने आने की सम्भावना ही नहीं रहती। फिर भी सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओं को तरने की बात कहने का तात्पर्य यह है कि अर्जुन के मन में यह भय बैठा था कि युद्ध करने से मुझे पाप लगेगा , युद्ध के कारण कुलपरम्परा के नष्ट होने से पितरों का पतन हो जायगा और इस प्रकार अनर्थ-परम्परा बढ़ती ही जायगी । हम लोग राज्य के लोभ में आकर इस महान पाप को करने के लिये तैयार हो गये हैं इसलिये मैं शस्त्र छोड़कर बैठ जाऊँ और धृतराष्ट्र के पक्ष के लोग मेरे को मार भी दें तो भी मेरा कल्याण ही होगा (गीता 1। 36 — 46)। इन सभी बातों को लेकर और अनेक जन्मों के दोषों को भी लेकर भगवान अर्जुन से कहते हैं कि मेरी कृपा से तू सब विघ्नों को , पापों को तर जायगा – सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। भगवान ने बहुवचन में ‘दुर्गाणि’ पद देकर भी उसके साथ सर्व शब्द और जोड़ दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि मेरी कृपा से तेरा किञ्चिन्मात्र भी पाप नहीं रहेगा , कोई भी बन्धन नहीं रहेगा और मेरी कृपा से सर्वथा शुद्ध होकर तू परमपद को प्राप्त हो जायगा।