मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
भक्ति सहित कर्मयोग का विषय
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।।
तम्-उस पर; एव-केवल; शरणम् गच्छ-शरण ग्रहण करो; सर्वभावेन – विशाल हृदय से; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन; तत्प्रसादात्-उसकी कृपा से; पराम्-परम; शान्तिम्-शान्ति; स्थानम्-धाम को ; प्राप्सयसि-प्राप्त करोगे; शाश्वतम्-नित्य।
हे भारत! अपने पूर्ण अस्तित्त्व के साथ पूर्ण रूप से केवल उसकी शरण ग्रहण करो। उसकी कृपा से तुम पूर्ण शांति और उसके नित्यधाम को प्राप्त करोगे अर्थात तुम सर्वभाव या सम्पूर्ण भाव से उस ईश्वर की ही शरण में चले जाओ । उसकी कृपा से तुम परमशान्ति अर्थात इस संसार से सम्पूर्ण वैराग्य को और अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाओगे।।18.62।।
[मनुष्यमें प्रायः यह एक कमजोरी रहती है कि जब उसके सामने संत-महापुरुष विद्यमान रहते हैं तब उसका उन पर श्रद्धा-विश्वास एवं महत्त्वबुद्धि नहीं होती (टिप्पणी प0 963) परन्तु जब वे चले जाते हैं तब पीछे वह रोता है , पश्चात्ताप करता है। ऐसे ही भगवान अर्जुन के रथ के घोड़े हाँकते हैं और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। वे ही भगवान जब अर्जुन से कहते हैं कि शरणागत भक्त मेरी कृपा से शाश्वत पद को प्राप्त हो जाता है और तू भी मेरे में चित्त वाला होकर , मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा तब अर्जुन कुछ बोले ही नहीं। इससे यह सम्भावना भी हो सकती है कि भगवान के वचनों पर अर्जुन को पूरा विश्वास न हुआ हो। इसी दृष्टि से भगवान को यहाँ अर्जुन के लिये अन्तर्यामी ईश्वर की शरण में जाने की बात कहनी पड़ी।] तमेव शरणं गच्छ – भगवान कहते हैं कि जो सर्वव्यापक ईश्वर सबके हृदय में विराजमान है और सबका संचालक है , तू उसी की शरणमें चला जा। तात्पर्य है कि सांसारिक उत्पत्तिविनाशशील पदार्थ , वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि किसी का किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेकर केवल अविनाशी परमात्मा का ही आश्रय ले ले।पूर्वश्लोक में यह कहा गया कि मनुष्य जब तक शरीररूपी यन्त्र के साथ मैं-मेरापन का सम्बन्ध रखता है तब तक ईश्वर अपनी माया से उसको घुमाता रहता है। अब यहाँ ‘एव’ पद से उसका निषेध करते हुए भगवान अर्जुन से कहते हैं कि शरीररूपी यन्त्र के साथ किञ्चिन्मात्र भी मैं-मेरापन का सम्बन्ध न रखकर तू केवल उस ईश्वर की शरण में चला जा। सर्वभावेन – सर्वभाव से शरण में जानेका तात्पर्य यह हुआ कि मन से उसी परमात्मा का चिन्तन हो , शारीरिक क्रियाओं से उसी का पूजन हो , उसी का प्रेमपूर्वक भजन हो और उसके प्रत्येक विधान में परम प्रसन्नता हो। वह विधान चाहे शरीर , इन्द्रियाँ , मन आदि के अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल हो उसे भगवान का ही किया हुआ मानकर खूब प्रसन्न हो जाय कि अहो ! भगवान की मेरे पर कितनी कृपा है कि मेरे से बिना पूछे ही मेरे मन , बुद्धि आदि के विपरीत जानते हुए भी केवल मेरे हित की भावना से , मेरा परम कल्याण करने के लिये उन्होंने ऐसा विधान किया है – तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् – भगवान ने पहले यह कह दिया था कि मेरी कृपा से शाश्वत पद की प्राप्ति हो जाती है (18। 56) और मेरी कृपा से तू सम्पूर्ण विघ्नों से तर जायगा (18। 58)। वही बात यहाँ कहते हैं कि उस अन्तर्यामी परमात्मा की कृपा से तू परमशान्ति और शाश्वत स्थान (पद) को प्राप्त कर लेगा। गीता में अविनाशी परमपद को ही परा शान्ति नाम से कहा गया है परन्तु यहाँ भवगान ने परा शान्ति और शाश्वत स्थान (परमपद) – दोनों का प्रयोग एक साथ किया है। अतः यहाँ परा शान्ति का अर्थ संसार से सर्वथा उपरति और शाश्वत स्थान का अर्थ परमपद लेना चाहिये। भगवान ने तमेव शरणं गच्छ पदों से अर्जुन को सर्वव्यापी ईश्वर की शरण में जाने के लिये कहा है। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्या भगवान श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हैं क्योंकि अगर भगवान श्रीकृष्ण ईश्वर होते तो अर्जुन को उसी की शरण में जा – ऐसा (परोक्ष रीति से) नहीं कहते ? इसका समाधान यह है कि भगवान ने सर्वव्यापक ईश्वर की शरणागति को तो गुह्याद्गुह्यतरम् (18। 63) अर्थात् गुह्य से गुह्यतर कहा है पर अपनी शरणागति को सर्वगुह्यतमम् (18। 64) अर्थात् सबसे गुह्यतम कहा है। इससे सर्वव्यापक ईश्वर की अपेक्षा भगवान श्रीकृष्ण बड़े ही सिद्ध हुए। भगवान ने पहले कहा है कि मैं अजन्मा , अविनाशी और सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ (4। 6) मैं सम्पूर्ण यज्ञों और तपों का भोक्ता हूँ , सम्पूर्ण लोकों का महान ईश्वर हूँ और सम्पूर्ण प्राणियों का सुहृद हूँ – ऐसा मुझे मानने से शान्ति की प्राप्ति होती है (5। 29) परन्तु जो मुझे सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और सबका मालिक नहीं मानते उनका पतन होता है (9। 24)। इस प्रकार अन्वयव्यतिरेक से भी भगवान श्रीकृष्ण का ईश्वरत्व सिद्धि हो जाता है। इस अध्याय में ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (18। 61) पदों से अन्तर्यामी ईश्वर को सब प्राणियों के हृदय में स्थित बताया है और पंद्रहवें अध्याय में ‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’ (15। 15) पदों से अपने को सबके हृदय में स्थित बताया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अन्तर्यामी परमात्मा और भगवान श्रीकृष्ण दो नहीं हैं , एक ही हैं। जब अन्तर्यामी परमात्मा और भगवान श्रीकृष्ण एक ही हैं तो फिर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘तमेंव शरणं गच्छ’ क्यों कहा ? इसका कारण यह है कि पहले 56वें श्लोक में भगवान ने अपनी कृपा से शाश्वत अविनाशी पद की प्राप्ति होने की बात कही और 57वें , 58वें श्लोकों में अर्जुन को अपने परायण होने की आज्ञा देकर मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा – यह बात कही परन्तु अर्जुन कुछ बोले नहीं अर्थात् उन्होंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया। इस पर भगवान ने अर्जुन को धमकाया कि यदि अहंकार के कारण तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। 59वें और 60वें श्लोक में कहा कि मैं युद्ध नहीं करूँगा – इस प्रकार अहंकार का आश्रय लेकर किया हुआ तेरा निश्चय भी नहीं टिकेगा और तुझे स्वभावज कर्मों के परवश होकर युद्ध करना ही पड़ेगा। भगवान के इतना कहने पर भी अर्जुन कुछ बोले नहीं। अतः अन्त में भगवान को यह कहना पड़ा कि यदि तू मेरी शरणमें नहीं आना चाहता तो सबके हृदय में स्थित जो अन्तर्यामी परमात्मा हैं उसी की शरण में तू चला जा। वास्तव में अन्तर्यामी ईश्वर और भगवान श्रीकृष्ण सर्वथा अभिन्न हैं अर्थात् सबके हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान ईश्वर ही भगवान श्रीकृष्ण हैं और भगवान श्रीकृष्ण ही सबके हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान ईश्वर हैं। पूर्वश्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा कि तू उस अन्तर्यामी ईश्वर की शरण में चला जा। ऐसा कहने पर भी अर्जुन कुछ नहीं बोले। इसलिये भगवान आगे के श्लोक में अर्जुन को चेताने के लिये उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं।