The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

श्री गीताजी का माहात्म्य

 

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।

योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।18.75।।

 

व्यासप्रसादात्-वेदव्यास की कृपा से; श्रुतवान्-सुना है; एतत्-इस; गुह्य-गोपनीय ज्ञान; अहम्-मैंने; परम्-परमः योगम् – योग; योगईश्वरात्-योग के परमेश्वर; कृष्णात्-कृष्ण से; साक्षात्-साक्षात; कथ्यतः-कहते हुए; स्वयम्-स्वयं।

 

वेद व्यास जी की कृपा से मैंने स्वयं इस परम गोपनीय योग (गीता-ग्रन्थ) अर्थात इस परम गुह्य योग को कहते हुए साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण से सुना है।।18.75।।

 

व्यासप्रसादात् श्रुतवान् – सञ्जय ने जब भगवान श्रीकृष्ण और महात्मा अर्जुन का पूरा संवाद सुना तब वे बड़े प्रसन्न हुए। अब उसी प्रसन्नता में वे कह रहे हैं कि ऐसा परम गोपनीय योग मैंने भगवान व्यासजी की कृपा से सुना । व्यासजी की कृपा से सुनने का तात्पर्य यह है कि भगवान ने ‘यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया (10। 1) इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् (18। 64)? मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे (18। 65) अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः’ (18। 66) आदि आदि प्यारे वचनों से अपना हृदय खोलकर अर्जुन से जो बातें कही हैं उन बातों को सुनने में केवल व्यासदेवजी की कृपा ही है अर्थात् सब बातें मैंने व्यासजी की कृपा से ही सुनी हैं। एतद् गुह्यं परं योगम् – समस्त योगों के महान ईश्वर के द्वारा कहा जाने से यह गीताशास्त्रयोग अर्थात् योगशास्त्र है। यह गीताशास्त्र अत्यन्त श्रेष्ठ और गोपनीय है। इसके समान श्रेष्ठ और गोपनीय दूसरा कोई संवाद देखने-सुनने में नहीं आता। जीव का भगवान के साथ जो नित्यसम्बन्ध है उसका नाम योग है। उस नित्ययोग की पहचान कराने के लिये कर्मयोग ,  ज्ञानयोग आदि योग कहे गये हैं। उन योगों के समुदाय का वर्णन गीता में होने से गीता भी योग अर्थात् योगशास्त्र है। योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् – सञ्जय के आनन्द की कोई सीमा नहीं रही है। इसलिये वे हर्षोल्लास में भरकर कह रहे हैं कि इस योग में मैंने समस्त योगों के महान ईश्वर साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के मुख से सुना है। सञ्जय को योगेश्वरात , कृष्णात् , साक्षात् , कथयतः , स्वयम् – ये पाँच शब्द कहने की क्या आवश्यकता थी ? सञ्जय इन शब्दों का प्रयोग करके यह कहना चाहते हैं कि मैंने यह संवाद परम्परा में नहीं सुना है और किसी ने मुझे सुनाया है – ऐसी बात भी नहीं । इसको तो मैंने खुद भगवान को कहते-कहते सुना है।

 

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