मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
श्री गीताजी का माहात्म्य
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।18.77।।
तत्-उस; च–भी; संस्मृत्य-संस्मृत्य-बार-बार स्मरण करके; रूपम्-विराट रूप को; अति-अत्यधिक; अद्भुतम्-आश्चर्यजनक; हरे:-भगवान् श्रीकृष्ण के; विस्मय:-आश्चर्य; मे-मेरा; महान- महान; राजन्– राजा; हृष्यामि -मैं हर्ष से रोमांचित हो रहा हूँ; च-और; पुनः पुनः-बारम्बार।
हे राजन ! भगवान श्रीकृष्ण के अति विस्मयकारी विश्व रूप का स्मरण कर मैं अति चकित और बार-बार हर्ष से रोमांचित हो रहा हूँ अर्थात भगवान् श्रीकृष्ण के उस अत्यन्त अद्भुत विराट रूप को याद कर-कर के मेरे को बड़ा भारी आश्चर्य हो रहा है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।।18.77।।
तच्च संस्मृत्य ৷৷. पुनः पुनः – सञ्जय ने पीछे के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद को तो अद्भुत बताया पर यहाँ भगवान के विराट रूप कोअत्यन्त अद्भुत बताते हैं। इसका तात्पर्य है कि संवाद को तो अब भी पढ़ सकते हैं , उस पर विचार कर सकते हैं पर उस विराट रूप के दर्शन अब नहीं हो सकते। अतः वह रूप अत्यन्त अद्भुत है। ग्यारहवें अध्याय के नवें श्लोक में सञ्जय ने भगवान को महायोगेश्वरः कहा था। यहाँ ‘विस्मयो मे महान’ पदों से कहते हैं कि ऐसे महायोगेश्वर भगवान के रूप को याद करने से महान विस्मय होगा ही। दूसरी बात – अर्जुन को तो भगवान ने कृपा से द्रवित होकर विश्वरूप दिखाया पर मेरे को तो व्यासजी की कृपा से देखने को मिल गया । यद्यपि भगवान ने रामावतार में कौसल्या अम्बा को विराट रूप दिखाया और कृष्णावतार में यशोदा मैया को तथा कौरवसभा में दुर्योधन आदि को विराट रूप दिखाया तथापि वह रूप ऐसा अद्भुत नहीं था कि जिसकी दाढ़ों में बड़े-बड़े योद्धा लोग फँसे हुए हैं और दोनों सेनाओं का महान संहार हो रहा है। इस प्रकार के अत्यन्त अद्भुत रूप को याद करके सञ्जय कहते हैं कि राजन ! यह सब जो व्यासजी महाराज की कृपा से ही मेरे को देखने को मिला है। नहीं तो ऐसा रूप मेरे जैसे को कहाँ देखने को मिलता? गीता के आरम्भ में धृतराष्ट्र का गूढ़ाभिसन्धिरूप प्रश्न था कि युद्ध का परिणाम क्या होगा ? अर्थात् मेरे पुत्रों की विजय होगी या पाण्डुपुत्रों की आगे के श्लोक में सञ्जय धृतराष्ट्र के उसी प्रश्न का उत्तर देते हैं।