मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।18.20।।
सर्वभूतेषु-समस्त जीवों में; येन-जिससे; एकम्-एक; भावम् – प्रकृति; अव्ययम्-अविनाशी; ईक्षते-कोई देखता है; अविभक्तम्-अविभाजित; विभक्तेषु – विभिन्न प्रकार से विभक्त; तत्-उस; ज्ञानम्-ज्ञान को; विद्धि-जानों; सात्त्विकम्-सत्वगुण।
जिस ज्ञान के द्वारा कोई नाना प्रकार के सभी जीवों में विभिन्न प्रकार से विभक्त एक ही अविभाजित अविनाशी सत्य अर्थात अविनाशी स्वरूप या अविनाशी सत्ता को देखता है उसे सत्वगुण प्रकृति का ज्ञान कहते हैं अर्थात उस ज्ञान को तुम सात्विक समझो ।।18.20।।
( किसी भी व्यक्ति को किसी व्यक्ति, वस्तु आदि में जो अपनापन , जो सत्ता दिखती है , जो अधिकार दिखता है कि यह मेरा है , यह मेरी है वह वस्तुतः उस व्यक्ति का नहीं है प्रत्युत इस जगत की समस्त वस्तुओं और सम्पूर्ण जीवों में परिपूर्ण परमात्मा का ही है। इस संसार में किसी भी व्यक्ति, वस्तु आदि की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं क्योंकि उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। कोई भी व्यक्ति, वस्तु आदि ऐसी नहीं है जिसमें परिवर्तन न होता हो परन्तु केवल अज्ञानतावश उनकी सत्ता प्रतीत होती है। जब अज्ञानता मिट जाती है और ज्ञान हो जाता है तब ज्ञानी साधक की दृष्टि उस अविनाशी तत्त्व की ओर ही जाती है जिसकी सत्ता से यह सब सत्तावान् प्रतीत हो रहा है। ज्ञान होने पर साधक की दृष्टि परिवर्तनशील वस्तुओं को भेदकर परिवर्तन रहित तत्त्व की ओर ही जाती है। फिर वह विभक्त अर्थात् अलग अलग वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति और घटना आदि में विभाग रहित एक ही तत्त्व को देखता है। तात्पर्य यह है कि अलग अलग वस्तु, व्यक्ति आदि का अलग अलग ज्ञान और यथायोग्य अलग अलग व्यवहार होते हुए भी वह इन विकारी वस्तुओं में उस स्वतः सिद्ध निर्विकार एक अविनाशी तत्त्व को देखता है। उसके देखने की यही पहचान है कि उसके अन्तःकरण में राग द्वेष नहीं होते। )
सर्वभूतेषु येनैकं ৷৷. अविभक्तं विभक्तेषु – व्यक्ति , वस्तु आदि में जो है पन दिखता है वह उन व्यक्ति , वस्तु आदि का नहीं है प्रत्युत सबमें परिपूर्ण परमात्म का ही है। उन व्यक्त , वस्तु आदि की स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है क्योंकि उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। कोई भी व्यक्ति , वस्तु आदि ऐसी नहीं है जिसमें परिवर्तन न होता हो परन्तु अपनी अज्ञता (बेसमझी) से उनकी सत्ता दिखती है। जब अज्ञता मिट जाती है , ज्ञान हो जाता है तब साधक की दृष्टि उस अविनाशी तत्त्व की तरफ ही जाती है जिसकी सत्ता से यह सब सत्तावान हो रहा है। ज्ञान होने पर साधक की दृष्टि परिवर्तनशील वस्तुओं को भेदकर परिवर्तनरहित तत्त्व की ओर ही जाती है (गीता 13। 27)। फिर वह विभक्त अर्थात् अलग-अलग वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना आदि में विभागरहित एक ही तत्त्व को देखता है (गीता 13। 16)। तात्पर्य यह है कि अलग-अलग वस्तु , व्यक्ति आदि का अलग-अलग ज्ञान और यथायोग्य अलग-अलग व्यवहार होते हुए भी वह इन विकारी वस्तुओं में उस स्वतःसिद्ध निर्विकार एक तत्त्व को देखता है। उसके देखने की यही पहचान है कि उसके अन्तःकरण में राग-द्वेष नहीं होते। तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् – उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान। परिवर्तनशील वस्तुओं , वृत्तियों के सम्बन्ध से ही इसे सात्त्विक ज्ञान कहते हैं। सम्बन्धरहित होने पर यही ज्ञान वास्तविक बोध कहलाता है जिसको भगवान ने सब साधनों से जाननेयोग्य ज्ञेयतत्त्व बताया है – ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते (गीता 13। 12)। मार्मिक बात- संसार का ज्ञान इन्द्रियों से होता है , इन्द्रियों का ज्ञान बुद्धि से होता है और बुद्धि का ज्ञान मैं से होता है। वह मैं बुद्धि , इन्द्रियाँ और विषय – इन तीनों को जानता है परन्तु उस मैं का भी एक प्रकाशक है जिसमें मैं का भी भान होता है। वह प्रकाश सर्वदेशीय और असीम है जब कि मैं एकदेशीय और सीमित है। उस प्रकाश में जैसे मैं का भान होता है वैसे ही तू , यह और वह का भी भान होता है। वह प्रकाश किसी का भी विषय नहीं है। वास्तव में वह प्रकाश निर्गुण ही है परन्तु व्यक्तिविशेष में रहने वाला होने से (वृत्तियों के सम्बन्ध से) उसे सात्त्विक ज्ञान कहते हैं। इस सात्त्विक ज्ञान को दूसरे ढंग से इस प्रकार समझना चाहिये – मैं , तू , यह और वह – ये चारों ही किसी प्रकाश में काम करते हैं। इन चारों के अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी आ जाते हैं जो विभक्त हैं परन्तु इनका जो प्रकाशक है वह अवभिक्त (विभागरहित) है। बोलने वाला मैं , उसके सामने सुनने वाला तू और पास वाला यह तथा दूर वाला वह कहा जाता है अर्थात् बोलने वाला अपने को मैं कहता है , सामने वाले को तू कहता है , पास वाले को यह कहता है और दूर वाले को वह कहता है। जो तू बना हुआ था वह मैं हो जाय तो मैं बना हुआ तू हो जायगा और यह तथा वह वही रहेंगे। इसी प्रकार यह कहलाने वाला अगर मैं बन जाय तो तू कहलाने वाला यह बन जायगा और मैं कहलाने वाला तू बन जायगा। वह परोक्ष होने से अपनी जगह ही रहा। अब वह कहलाने वाला मैं बन जायगा तो उसकी दृष्टि में मैं , तू और यह कहलाने वाले सब वह हो जायेंगे (टिप्पणी प0 903)। इस प्रकाश में मैं , तू , यह और वह का भान हो रहा है। दृष्टि में चारों ही बन सकते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि मैं , तू , यह और वह – ये सब परिवर्तनशील हैं अर्थात् टिकने वाले नहीं हैं , वास्तविक नहीं हैं। अगर वास्तविक होते तो एक ही रहते। वास्तविक तो इन सबका प्रकाशक और आश्रय है जिसके प्रकार मैं , तू , यह और वह – ये यारों ही एक-दूसरे की उस प्रकाश में मैं , तू , यह और वह – ये चारों ही नहीं हैं प्रत्युत उसी से इन चारों को सत्ता मिलती है। अपनी मान्यता के कारण मैं , तू , यह , वह का तो भान होता है पर प्रकाशक का भान नहीं होता। वह प्रकाशक सबको प्रकाशित करता है , स्वयंप्रकाशस्वरूप है और सदा ज्यों का त्यों रहता है। मैं , तू , यह और वह – यह सब विभक्त प्राणियों का स्वरूप है और जो वास्तविक प्रकाशक है , वह विभागरहित है। यही वास्तव में सात्त्विक ज्ञान है।विभाग वाली , परिवर्तनशील और नष्ट होने वाली जितनी वस्तुएँ हैं यह ज्ञान उन सबका प्रकाशक है और स्वयं भी निर्मल तथा विकाररहित है – तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम् (गीता 14। 6)। इसलिये इस ज्ञान को सात्त्विक कहा जाता है। वास्तव में यह सात्त्विक ज्ञान प्रकाश्य की दृष्टि (सम्बन्ध) से प्रकाशक और विभक्त की दृष्टि से अविभक्त कहा जाता है। प्रकाश्य और विभक्त से रहित होने पर तो यह निर्गुण , निरपेक्ष वास्तविक ज्ञान ही है। अब राजस ज्ञान का वर्णन करते हैं।