मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।18.22।।
यत्-जो; तु-लेकिन; कृत्स्नवत्-जैसे कि वह पूर्ण सम्मिलित हो; एकस्मिन्–एक; कार्ये – कार्य; सक्तम्-तल्लीन; अहैतुकम्-अकारण; अतत्त्व-अर्थवत्-जो सत्य पर आधारित न हो; अल्पम्-अणु अंश; च-और; तत्-वह; तामसम्-तमोगुणी; उदाहृतम्-कहा जाता है।
वह ज्ञान जिसमें कोई मनुष्य ऐसी विखंडित या असत्य अवधारणा में तल्लीन होता है जैसे कि वह संपूर्ण के सदृश हो और जो न तो किसी कारण और न ही सत्य पर आधारित है उसे तामसिक ज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण की तरह आसक्त है तथा जो युक्तिरहित, वास्तविक ज्ञान से रहित और तुच्छ है, वह तामस कहा गया है अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक कार्य रूप शरीर में ही आसक्त हो जाता है, मानो वह (कार्य ही) पूर्ण वस्तु हो तथा जो (ज्ञान) हेतुरहित (अयुक्तिक), तत्त्वार्थ से रहित तथा संकुचित (अल्प) है, वह (ज्ञान) तामस है।।18.22।।
( तामस मनुष्य एक ही शरीर में सम्पूर्ण की तरह आसक्त रहता है अर्थात् उत्पन्न और नष्ट होने वाले इस पाञ्चभौतिक शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है। वह मानता है कि मैं ही छोटा बच्चा था, मैं ही जवान हूँ और मैं ही बूढ़ा हो जाऊँगा । मैं भोगी हूँ , मैं बलवान हूँ , मैं सुखी हूँ , मैं धनी हूँ , मैं बड़े कुटुम्बवाला हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है इत्यादि इत्यादि। ऐसी मान्यता मूढ़ता के कारण ही होती है । तामस मनुष्य की मान्यता युक्ति और शास्त्रप्रमाण के विरुद्ध होती है। यह शरीर प्रतिक्षण बदल रहा है। शरीर आदि वस्तुमात्र अभाव में परिवर्तित हो रही है , दृश्यमात्र अदृश्य हो रहा है और इनमें तू ( आत्मा ) सदा ज्यों का त्यों रहता है अतः यह शरीर और तू एक कैसे हो सकते हैं ? इस प्रकार की युक्तियों को वह स्वीकार नहीं करता। यह शरीर और मैं दोनों अलग – अलग हैं । इस वास्तविक ज्ञान या विवेक से वह रहित है। उसकी समझ अत्यन्त तुच्छ है अर्थात् तुच्छता की प्राप्ति कराने वाली है कारण कि तामस पुरुष में मूढ़ता की प्रधानता होती है। मूढ़ता और ज्ञान का आपस में विरोध है । युक्तिरहित , अल्प और अत्यन्त तुच्छ समझ को ही तामस कहा गया है। )
यत्तु (टिप्पणी प0 904.2) कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तम् – तामस मनुष्य एक ही शरीर में सम्पूर्ण की तरह आसक्त रहता है अर्थात् उत्पन्न और नष्ट होने वाले इस पाञ्चभौतिक शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है। वह मानता है कि मैं ही छोटा बच्चा था , मैं ही जवान हूँ और मैं ही बूढ़ा हो जाऊँगा । मैं भोगी , बलवान् और सुखी हूँ । मैं धनी और बड़े कुटुम्बवाला हूँ । मेरे समान दूसरा कौन है इत्यादि। ऐसी मान्यता मूढ़ता के कारण ही होती है – इत्यज्ञानविमोहिताः (16। 15)। अहैतुकम् – तामस मनुष्य की मान्यता युक्ति और शास्त्रप्रमाण से विरुद्ध होती है। यह शरीर हरदम बदल रहा है , शरीरादि वस्तुमात्र अभाव में परिवर्तित हो रही है , दृश्यमात्र अदृश्य हो रहा है और इनमें तू सदा ज्यों का त्यों रहता है । अतः यह शरीर और तू एक कैसे हो सकते हैं ? इस प्रकार की युक्तियों को वह स्वीकार नहीं करता। अतत्त्वार्थवदल्पं च – यह शरीर और मैं दोनों अलग-अलग हैं – इस वास्तविक ज्ञान (विवेक) से वह रहित है। उसकी समझ अत्यन्त तुच्छ है अर्थात् तुच्छता की प्राप्ति कराने वाली है। इसलिये इसको ज्ञान कहने में भगवान को संकोच हुआ है। कारण कि तामस पुरुष में मूढ़ता की प्रधानता होती है। मूढ़ता और ज्ञान का आपस में विरोध है। अतः भगवान ने ज्ञान पद न देकर ‘यत्’ और ‘तत्’ पद से ही काम चलाया है। तत्तामसमुदाहृतम् — युक्तिरहित , अल्प और अत्यन्त तुच्छ समझ को ही महत्त्व देना तामस कहा गया है। जब तामस समझ ज्ञान है ही नहीं और भगवान को भी इसको ज्ञान कहने में संकोच हुआ है तो फिर इसका वर्णन ही क्यों किया गया ? कारण कि भगवान ने 19वें श्लोक में ज्ञान के त्रिविध भेद कहने का उपक्रम किया है इसलिये सात्त्विक और राजस ज्ञान का वर्णन करने के बाद तामस समझ को भी कहने की आवश्यकता थी। अब भगवान सात्त्विक कर्म का वर्णन करते हैं।