मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
भक्ति सहित कर्मयोग का विषय
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।18.59।।
यत्-यदि; अहङ्कारम् अहंकार से प्रेरित; आश्रित्य–शरण लेकर; न-योत्स्ये-मैं नहीं लडूंगा; इति इस प्रकार; मन्यसे-तुम सोचते हो; मिथ्याएष-यह सब झूठ है; व्यवसायः-दृढ़ संकल्प; ते तुम्हारा; प्रकृतिः-भौतिक प्रकृति; त्वाम्-तुमको; नियोक्ष्यति–विवश करेगी।
यदि तुम अहंकार से प्रेरित होकर सोचते हो कि “मैं युद्ध नहीं लडूंगा “, तुम्हारा यह निर्णय, यह निश्चय झूठा और निरर्थक है । तुम्हारा स्वाभाविक क्षत्रिय धर्म , तुम्हारी स्वाभाविक क्षात्र प्रकृति , क्षात्र स्वभाव तुम्हें युद्ध लड़ने के लिए विवश करेगा , तुम्हें बल पूर्वक युद्ध में लगा देगा ।।18.59।।
यदहंकारमाश्रित्य – प्रकृति से ही महत्तत्त्व और महत्तत्त्व से अहंकार पैदा हुआ है। उस अहंकार का ही एक विकृत अंश है – मैं शरीर हूँ। इस विकृत अहंकार का आश्रय लेने वाला पुरुष कभी भी क्रियारहित नहीं हो सकता। कारण कि प्रकृति हरदम क्रियाशील है , बदलने वाली है इसलिये उसके आश्रित रहने वाला कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रह सकता (गीता 3। 5)। जब मनुष्य अहंकारपूर्वक क्रियाशील प्रकृति के वश में हो जाता है तो फिर वह यह कैसे कह सकता है कि मैं अमक कर्म करूँगा और अमुक कर्म नहीं करूँगा अर्थात् प्रकृति के परवश हुआ मनुष्य करना और न करना – इन दोनों से छूटेगा नहीं। कारण कि प्रकृति के परवश हुए मनुष्य का तो करना भी कर्म है और न करना भी कर्म है परन्तु जब मनुष्य प्रकृति के परवश नहीं रहता उससे निर्लिप्त हो जाता है (जो कि इसका वास्तविक स्वरूप है) तो फिर उसके लिये करना और न करना – ऐसा कहना ही नहीं बनता। तात्पर्य यह है कि जो प्रकृति के साथ सम्बन्ध रखे और कर्म न करना चाहे , ऐसा उसके लिये सम्भव नहीं है परन्तु जिसने प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है अथवा जो सर्वथा भगवान के शरण हो गया है उसको कर्म करने के लिये बाध्य नहीं होना पड़ता। न योत्स्य इति मन्यसे – दूसरे अध्याय में अर्जुन ने भगवान के शरण होकर शिक्षा की प्रार्थना की – शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् (2। 7) और उसके बाद अर्जुन ने साफ-साफ कह दिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगा – न योत्स्ये (2। 9)। यह बात भगवान को अच्छी नहीं लगी। भगवान मन में सोचते हैं कि यह पहले तो मेरे शरण हो गया और फिर इसने मेरे कुछ कहे बिना ही अपनी तरफ से साफ-साफ कह दिया कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो फिर यह मेरी शरणागति कहाँ रही ? यह तो अहंकार की शरणागति हो गयी । कारण कि वास्तविक शरणागत होने पर मैं यह करूँगा , यह नहीं करूँगा – ऐसा कहना ही नहीं बनता। भगवान के शरणागत होने पर तो भगवान जैसा करायेंगे वैसा ही करना होगा। इसी बात को लेकर भगवान को हँसी आ गयी (2। 10) परन्तु अर्जुन पर अत्यधिक कृपा और स्नेह होने के कारण भगवान ने उपदेश देना आरम्भ कर दिया , नहीं तो भगवान वहीं पर यह कह देते कि जैसा चाहता है वैसा कर – यथेच्छसि तथा कुरु (18। 63) परन्तु अर्जुन की यह बात कि मैं युद्ध नहीं करूँगा भगवान के भीतर खटक गयी। इसलिये भगवान ने यहाँ अर्जुन के उन्हीं शब्दों – न योत्स्ये का प्रयोग करके यह कहा है कि तू अहंकार के ही शरण है , मेरे शरण नहीं। अगर तू मेरे शरण हो गया होता तो युद्ध नहीं करूँगा – ऐसा कहना बन ही नहीं सकता था। मेरे शरण होता तो मैं क्या करूँगा और क्या नहीं करूँगा इसकी जिम्मेवारी मेरे पर होती। इसके अलावा मेरे शरणागत होने पर यह प्रकृति भी तुझे बाध्य नहीं कर पाती (गीता 7। 14)। यह त्रिगुणमयी माया अर्थात् प्रकृति उसी को बाध्य करती है जो मेरे शरण नहीं हुआ है (गीता 7। 13) क्योंकि यह नियम है कि प्रकृति के प्रवाह में पड़ा हुआ प्राणी प्रकृति के गुणों के द्वारा सदा ही परवश होता है। यह एक बड़ी मार्मिक बात है कि मनुष्य जिन प्राकृत पदार्थों को अपना मान लेते हैं उन पदार्थों के सदा ही परवश (पराधीन) हो जाते हैं। वे वहम तो यह रखते हैं कि हम इन पदार्थों के मालिक हैं पर हो जाते हैं उनके गुलाम परन्तु जिन पदार्थों को अपना नहीं मानते उन पदार्थों के परवश नहीं होते। इसलिये मनुष्य को किसी भी प्राकृत पदार्थ को अपना नहीं मानना चाहिये क्योंकि वे वास्तव में अपने हैं ही नहीं। अपने तो वास्तव में केवल भगवान ही हैं। उन भगवान को अपना मानने से मनुष्य की परवशता सदा के लिये समाप्त हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य पदार्थों और क्रियाओं को अपनी मानता है तो सर्वथा परतन्त्र हो जाता है और भगवान को अपना मानता है और उनके अनन्य शरण होता है तो सर्वथा स्वतन्त्र हो जाता है। प्रभु के शरणागत होने पर परतन्त्रता लेशमात्र भी नहीं रहती – यह शरणागति की महिमा है परन्तु जो प्रभु की शरण न लेकर अहंकार की शरण लेते हैं वे मौत के मार्ग (संसार) में बह जाते हैं – निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि (9। 3)। इसी बात की चेतावनी देते हुए भगवान अर्जुन से कह रहे हैं कि तू जो यह कहता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो तेरा यह कहना , तेरी यह हेकड़ी चलेगी नहीं। तुझे क्षात्रप्रकृति के परवश होकर युद्ध करना ही पड़ेगा। मिथ्यैष व्यवसायस्ते – व्यवसाय अर्थात् निश्चय दो तरह का होता है – वास्तविक और अवास्तविक। परमात्मा के साथ अपना जो नित्य सम्बन्ध है उसका निश्चय करना तो वास्तविक है और प्रकृति के साथ मिलकर प्राकृत पदार्थों का निश्चय करना अवास्तविक है। जो निश्चय परमात्मा को लेकर होता है उसमें स्वयं की प्रधानता रहती है और जो निश्चय प्रकृति को लेकर होता है उसमें अन्तःकरण की प्रधानता रहती है। इसलिये भगवान यहाँ अर्जुन से कहते हैं कि अहंकार का अर्थात् प्रकृति का आश्रय लेकर तू जो यह कह रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा – ऐसा तेरा (क्षात्रप्रकृति के विरुद्ध) निश्चय अवास्तविक अर्थात् मिथ्या है , झूठा है। आश्रय परमात्मा का ही होना चाहिये , प्रकृति और प्रकृति के कार्य संसार का नहीं। यदि प्राणी यह निश्चय कर लेता है कि मैं परमात्मा का ही हूँ और मुझे केवल परमात्मा की तरफ ही चलना है तो उसका यह निश्चय वास्तविक अर्थात् सत्य है , नित्य है। इस निश्चय की महिमा भगवान ने नवें अध्याय के 30वें श्लोक में की है कि अगर दुराचारी से दुराचारी मनुष्य भी अनन्यभाव से मेरा भजन करता है तो उसको दुराचारी नहीं मानना चाहिये प्रत्युत साधु ही मानना चाहिये क्योंकि वह वास्तविक निश्चय कर चुका है कि मैं भगवान का ही हूँ और भगवान का ही भजन करूँगा। प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति – इन पदों से भगवान कहते हैं कि तेरा क्षात्रस्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा। क्षत्रिय का स्वभाव है – शूरवीरता , युद्ध में पीठ न दिखाना (गीता 18। 43)। अतः धर्ममय युद्ध का अवसर सामने आने पर तू युद्ध किये बिना रह नहीं सकेगा। पूर्वश्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा कि प्रकृति तुझे कर्म में लगा देगी । अब आगे के श्लोक में उसी का विवेचन करते हैं।