मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
भक्ति सहित कर्मयोग का विषय
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।18.60।।
स्वभावजेन – अपने प्राकृतिक गुण से उत्पन्न; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र,अर्जुन; निबद्धः-बद्ध; स्वेन-अपनी प्रवृत्ति द्वारा; कर्मणा-कर्मों द्वारा; कर्तुम् – करने के लिए; न-नहीं; इच्छसि-इच्छा करते हो; यत्-जिसे; मोहात्-मोह के कारण; करिष्यसि-तुम करोगे; अवश:-असहाय होकर; अपि-भी; तत्-वह।
हे कौन्तेय ! मोहवश जिस कर्म को तुम नहीं करना चाहते उसे तुम अपनी प्राकृतिक शक्ति से उत्पन्न प्रवृत्ति से बाध्य होकर करोगे अर्थात तुम अपने स्वाभाविक कर्मों से बंधे हो, अत: मोह के वश हो कर जिस कर्म को तुम करना नहीं चाहते हो, वही तुम अपनी क्षात्र प्रकृति से विवश होकर करोगे।।18.60।।
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा – पूर्वजन्म में जैसे कर्म और गुणों की वृत्तियाँ रही हैं , इस जन्म में जैसे माता-पिता से पैदा हुए हैं अर्थात् माता-पिता के जैसे संस्कार रहे हैं , जन्म के बाद जैसा देखा-सुना है , जैसी शिक्षा प्राप्त हुई है और जैसे कर्म किये हैं – उन सबके मिलने से अपनी जो कर्म करने की एक आदत बनी है – उसका नाम स्वभाव है। इसको भगवान ने ‘स्वभावजन्य स्वकीय कर्म’ कहा है। इसी को स्वधर्म भी कहते हैं – स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि (गीता 2। 31)। कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत् – स्वभावजन्य क्षात्रप्रकृति से बँधा हुआ तू मोह के कारण जो नहीं करना चाहता उसको तू परवश होकर करेगा। स्वभाव के अनुसार ही शास्त्रों ने कर्तव्यपालन की आज्ञा दी है। उस आज्ञा में यदि दूसरों के कर्मों की अपेक्षा अपने कर्मों में कमियाँ अथवा दोष दिखते हों तो भी वे दोष बाधक (पापजनक) नहीं होते – श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। (गीता 3। 35 18। 47)। उस स्वभावज कर्म (क्षात्रधर्म) के अनुसार तू युद्ध करने के लिये परवश है। युद्धरूप कर्तव्य को न करने का तेरा विचार मूढ़तापूर्वक किया गया है। जो जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं उनका स्वभाव सर्वथा शुद्ध होता है। अतः उन पर स्वभाव का आधिपत्य नहीं रहता अर्थात् वे स्वभाव के परवश नहीं होते फिर भी वे किसी काम में प्रवृत्त होते हैं तो अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार ही काम करते हैं परन्तु साधारण मनुष्य प्रकृति के परवश होते हैं इसलिये उनका स्वभाव उनको जबर्दस्ती कर्म में लगा देता है (गीता 3। 33)। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तेरा क्षात्रस्वभाव भी तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा परन्तु उसका फल तेरे लिये बढ़िया नहीं होगा। यदि तू शास्त्र या सन्त-महापुरुषों की आज्ञा से अथवा मेरी आज्ञा से युद्धरूप कर्म करेगा तो वही कर्म तेरे लिये कल्याणकारी हो जायगा। कारण कि शास्त्र अथवा मेरी आज्ञा से कर्मों को करने से उन कर्मों में जो राग-द्वेष हैं वे स्वाभाविक ही मिटते चले जायँगे क्योंकि तेरी दृष्टि आज्ञा की तरफ रहेगी , राग-द्वेष की तरफ नहीं। अतः वे कर्म बन्धनकारक न होकर कल्याणकारक ही होंगे। विशेष बात – गीता में प्रकृति की परवशता की बात सामान्यरूप से कई जगह आयी है (जैसे — 3। 5 8। 19 9। 8 आदि) परन्तु दो जगह प्रकृति की परवशता की बात विशेषरूप से आयी है – प्रकृतिं यान्ति भूतानि (3। 33) और यहाँ प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति (18। 59) (टिप्पणी प0 960)। इससे स्वभाव की प्रबलता ही सिद्ध होती है क्योंकि कोई भी प्राणी जिस किसी योनि में भी जन्म लेता है उसकी प्रकृति अर्थात् स्वभाव उसके साथ में रहता है। अगर उसका स्वभाव परम शुद्ध हो अर्थात् स्वभाव में सर्वथा असङ्गता हो तो उसका जन्म ही क्यों होगा ? यदि उसका जन्म होगा तो उसमें स्वभाव की मुख्यता रहेगी – कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21)। जब स्वभाव की ही मुख्यता अथवा परवशता रहेगी और प्रत्येक क्रिया स्वभाव के अनुसार ही होगी तो फिर शास्त्रों का विधिनिषेध किस पर लागू होगा ? गुरुजनों की शिक्षा किसके काम आयेगी और मनुष्य दुर्गुण-दुराचारों का त्याग करके सद्गुण-सदाचारों में कैसे प्रवृत्त होगा ? उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर यह है कि जैसे मनुष्य गङ्गाजी के प्रवाह को रोक तो नहीं सकता पर उसके प्रवाह को मोड़ सकता है , घुमा सकता है। ऐसे ही मनुष्य अपने वर्णोचित स्वभाव को छोड़ तो नहीं सकता पर भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य रखकर उसको राग-द्वेष से रहित परम शुद्ध , निर्मल बना सकता है। तात्पर्य यह हुआ कि स्वभाव को शुद्ध बनाने में मनुष्यमात्र सर्वथा सबल और स्वतन्त्र है , निर्बल और परतन्त्र नहीं है। निर्बलता और परतन्त्रता तो केवल राग-द्वेष होने से प्रतीत होती है। अब इस स्वभाव को सुधारने के लिये भगवान ने गीता में कर्मयोग और भक्तियोग की दृष्टि से दो उपाय बताये हैं (1) कर्मयोग की दृष्टि से – तीसरे अध्याय के 34वें श्लोक में भगवान ने बताया है कि मनुष्य के खास शत्रु राग-द्वेष ही हैं। अतः राग-द्वेष के वश में नहीं होना चाहिये अर्थात् राग-द्वेष को लेकर कोई भी कर्म नहीं करना चाहिये प्रत्युत शास्त्र की आज्ञा के अनुसार ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये। शास्त्र के आज्ञानुसार अर्थात् शिष्य गुरु की , पुत्र माता-पिता की , पत्नी पति की और नौकर मालिक की आज्ञा के अनुसार प्रसन्नतापूर्वक सब कर्म करता है तो उसमें राग-द्वेष नहीं रहते। कारण कि अपने मन के अनुसार कर्म करने से ही राग-द्वेष पुष्ट होते हैं। शास्त्र आदि की आज्ञा के अनुसार कार्य करने से और कभी दूसरा नया कार्य करने की मन में आ जाने पर भी शास्त्र की आज्ञा न होने से हम वह कार्य नहीं करते तो उससे हमारा राग मिट जायगा और कभी कार्य को न करने की मन में आ जाने पर भी शास्त्र की आज्ञा होने से हम वह कार्य प्रसन्नतापूर्वक करते हैं तो उससे हमारा द्वेष मिट जाता है।(2) भक्तियोग की दृष्टि से – जब मनुष्य ममता वाली वस्तुओं के सहित स्वयं भगवान के शरण हो जाता है तब उसके पास अपना करके कुछ नहीं रहता। वह भगवान के हाथ की कठपुतली बन जाता है। फिर भगवान की आज्ञा के अनुसार , उनकी इच्छा के अनुसार ही उसके द्वारा सब कार्य होते हैं । जिससे उसके स्वभाव में रहने वाले राग-द्वेष मिट जाते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोग में राग-द्वेष के वशीभूत न होकर कार्य करने से स्वभाव शुद्ध हो जाता है (गीता 3। 34) और भक्तियोग में भगवान के सर्वथा अर्पित होने से स्वभाव शुद्ध हो जाता है (गीता 18। 62)। स्वभाव शुद्ध होने से बन्धन का कोई प्रश्न ही नहीं रहता। मनुष्य जो कुछ कर्म करता है वह कभी राग-द्वेष के वशीभूत होकर करता है और कभी सिद्धान्त के अनुसार करता है। रागद्वेषपूर्वक कर्म करने से राग-द्वेष दृढ़ हो जाते हैं और फिर मनुष्य का वैसा ही स्वभाव बन जाता है। सिद्धान्त के अनुसार कर्म करने से उसका सिद्धान्त के अनुसार ही करने का स्वभाव बन जाता है। जो मनुष्य परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य रखकर शास्त्र और महापुरुषों के सिद्धान्त के अनुसार कर्म करते हैं और जो परमात्मा को प्राप्त हो गये हैं – उन दोनों (साधकों और सिद्ध महापुरुषों) के कर्म दुनिया के लिये आदर्श होते हैं , अनुकरणीय होते हैं (गीता 3। 21)। जीव स्वयं परमात्मा का अंश है और स्वभाव अंश है स्वयं स्वतःसिद्ध है और स्वभाव खुद का बनाया हुआ है , स्वयं चेतन है और स्वभाव जड है – ऐसा होने पर भी जीव स्वभाव के परवश कैसे हो जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान आगे का श्लोक कहते हैं।