The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

भक्ति सहित कर्मयोग का विषय

 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।

 

ईश्वर:-परमेश्वर; सर्वभूतानाम्-सभी जीवों में; हृत्देशे-हृदय में; अर्जुन-अर्जुन; तिष्ठति-वास करता है; भ्रामयन्-भटकने का कारण; सर्वभूतानि-समस्त जीवों को; यन्त्रआरूढानि-यंत्र पर सवार, मायया – भौतिक शक्ति से निर्मित।

 

हे अर्जुन! परमात्मा सभी जीवों के हृदय में निवास करता है। उनके कर्मों के अनुसार वह भटकती आत्माओं को निर्देशित करता है जो भौतिक शक्ति से निर्मित यंत्र पर सवार होती है अर्थात ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया से शरीर रूपी यन्त्र पर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को उनके स्वभाव के अनुसार भ्रमण कराता रहता है।।18.61।।

 

ईश्वरः सर्वभूतानां ৷৷. यन्त्रारूढानि मायया – इसका तात्पर्य यह है कि जो ईश्वर सबका शासक , नियामक , सबका भरण-पोषण करने वाला और निरपेक्षरूप से सबका संचालक है , वह अपनी शक्ति से उन प्राणियों को घुमाता है जिन्होंने शरीर को मैं और मेरा मान रखा है। जैसे विद्युत शक्ति से संचालित यन्त्र – रेल पर कोई आरूढ़ हो जाता है , चढ़ जाता है तो उसको परवशता से रेल के अनुसार ही जाना पड़ता है परन्तु जब वह रेल पर आरूढ़ नहीं रहता , नीचे उतर जाता है तब उसको रेल के अनुसार नहीं जाना पड़ता। ऐसे ही जब तक मनुष्य शरीररूपी यन्त्र के साथ मैं और मेरेपन का सम्बन्ध रखता है तब तक ईश्वर उसको उसके स्वभाव (टिप्पणी प0 962) के अनुसार संचालित करता रहता है और वह मनुष्य जन्ममरणरूप संसार के चक्र में घूमता रहता है। शरीर के साथ मैं-मेरेपन का सम्बन्ध होने से ही राग-द्वेष पैदा होते हैं जिससे स्वभाव अशुद्ध हो जाता है। स्वभाव के अशुद्ध होने पर मनुष्य प्रकृति अर्थात् स्वभाव के परवश हो जाता है परन्तु शरीर से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर जब स्वभाव राग-द्वेष से रहित अर्थात् शुद्ध हो जाता है तब प्रकृति की परवशता नहीं रहती। प्रकृति (स्वभाव) की परवशता न रहने से ईश्वर की माया उसको संचालित नहीं करती। अब यहाँ यह शङ्का होती है कि जब ईश्वर ही हमारे को भ्रमण करवाता है , क्रिया करवाता है तब यह काम करना चाहिये और यह काम नहीं करना चाहिये – ऐसी स्वतंन्त्रता कहाँ रही ? क्योंकि यन्त्रारूढ़ होने के कारण हम यन्त्र के और यन्त्र के संचालक ईश्वर के अधीन हो गये , परतन्त्र हो गये फिर यन्त्र का संचालक (प्रेरक) जैसा करायेगा वैसा ही होगा । इसका समाधान इस प्रकार है – जैसे बिजली से संचालित होने वाले यन्त्र अनेक तरह के होते हैं। एक ही बिजली से संचालित होने पर भी किसी यन्त्र में बर्फ जम जाती है और किसी यन्त्र में अग्नि जल जाती है अर्थात् उनमें एक-दूसरे से बिलकुल विरुद्ध काम होता है परन्तु बिजली का यह आग्रह नहीं रहता कि मैं तो केवल बर्फ ही जमाऊँगी अथवा केवल अग्नि ही जलाऊँगी। यन्त्रों का भी ऐसा आग्रह नहीं रहता कि हम तो केवल बर्फ ही जमायेंगे अथवा केवल अग्नि ही जलायेंगे प्रत्युत यन्त्र बनाने वाले कारीगर ने यन्त्रों को जैसा बना दिया है उसके अनुसार उनमें स्वाभाविक ही बर्फ जमती है और अग्नि जलती है। ऐसे ही मनुष्य , पशु , पक्षी , देवता , यक्ष , राक्षस आदि जितने भी प्राणी हैं सब शरीररूपी यन्त्रों पर चढ़े हुए हैं और उन सभी यन्त्रों को ईश्वर संचालित करता है। उन अलग-अलग शरीरों में भी जिस शरीर में जैसा स्वभाव है उस स्वभाव के अनुसार वे ईश्वर से प्रेरणा पाते हैं और कार्य करते हैं। तात्पर्य यह है कि उन शरीरों से मैं-मेरेपन का सम्बन्ध मानने वाले का जैसा (अच्छा या मन्दा) स्वभाव होता है उससे वैसी ही क्रियाएँ होती हैं। अच्छे स्वभाव वाले (सज्जन) मनुष्य के द्वारा श्रेष्ठ क्रियाएँ होती हैं और मन्दे स्वभाव वाले (दुष्ट) मनुष्य के द्वारा खराब क्रियाएँ होती हैं। इसलिये अच्छी या मन्दी क्रियाओं को कराने में ईश्वर का हाथ नहीं है प्रत्युत खुद के बनाये हुए अच्छे या मन्दे स्वभाव का ही हाथ है। जैसे बिजली यन्त्र के स्वभाव के अनुसार ही उसका संचालन करती है , ऐसे ही ईश्वर प्राणी के (शरीर में स्थित) स्वभाव के अनुसार उसका संचालन करते हैं। जैसा स्वभाव होगा वैसे ही कर्म होंगे। इसमें एक बात विशेष ध्यान देने की है कि स्वभाव को सुधारने में और बिगाड़ने में सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं , कोई भी परतन्त्र नहीं है परन्तु पशु , पक्षी , देवता आदि जितने भी मनुष्येतर प्राणी हैं उनमें अपने स्वभाव को सुधारने का न अधिकार है और न स्वतन्त्रता ही है। मनुष्यशरीर अपना उद्धार करने के लिये ही मिला है इसलिये इसमें अपने स्वभाव को सुधारने का पूरा अधिकार , पूरी स्वतन्त्रता है। उस स्वतन्त्रता का सदुपयोग करके स्वभाव सुधारने में और स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके स्वभाव बिगाड़ने में मनुष्य स्वयं ही कारण है। ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदयदेश में रहता है – यह कहने का तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वी में सब जगह जल रहने पर भी जहाँ कुआँ होता है वहीं से जल प्राप्त होता है । ऐसे ही परमात्मा सब जगह समान रीति से परिपूर्ण होते हुए भी हृदय में प्राप्त होते हैं अर्थात् हृदय सर्वव्यापी परमात्मा की प्राप्ति का विशेष स्थान है। ऐसे ही तीसरे अध्याय में सर्वव्यापी परमात्मा को यज्ञ (निष्कामकर्म) में स्थित बताया गया है – तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् (गीता 3। 15)। विशेष बात- साधक की प्रायः यह भूल होती है कि वह भजन , कीर्तन , ध्यान आदि करते हुए भी भगवान दूर हैं , वे अभी नहीं मिलेंगे , यहाँ नहीं मिलेंगे , अभी मैं योग्य नहीं हूँ , भगवान की कृपा नहीं है आदि भावनाएँ बनाकर भगवान की दूरी की मान्यता ही दृढ़ करता रहता है। इस जगह साधक को यह सावधानी रखनी चाहिये कि जब भगवान सभी प्राणियों में मौजूद हैं तो मेरे में भी हैं। वे सर्वत्र व्यापक हैं तो मैं जो जप करता हूँ उस जप में भी भगवान हैं , मैं श्वास लेता हूँ तो उस श्वास में भी भगवान हैं , मेरे मन में भी भगवान हैं , बुद्धि में भी भगवान हैं , मैं जो मैं-मैं कहता हूँ उस मैं में भी भगवान हैं। उस मैं का जो आधार है वह अपना स्वरूप भगवान से अभिन्न है अर्थात् मैंपन तो दूर है पर भगवान मैंपन से भी नजदीक हैं। इस प्रकार अपने में भगवान को मानते हुए ही भजन , जप , ध्यान आदि करने चाहिये। अब शङ्का यह होती है कि अपने में परमात्मा को मानने से मैं और परमात्मा दो (अलग-अलग) हैं – यह द्वैतापत्ति होगी। इसका समाधान यह है कि परमात्मा को अपने में मानने से द्वैतापत्ति नहीं होती प्रत्युत अहंकार (मैंपन) को स्वीकार करने से जो अपनी अलग सत्ता प्रतीत होती है उसी से द्वैतापत्ति होती है। परमात्मा को अपना और और अपने में मानने से तो परमात्मा से अभिन्नता होती है , जिससे प्रेम प्रकट होता है। जैसे गङ्गाजी में बाढ़ आ जाने से उसका जल बहुत बढ़ जाता है और फिर पीछे वर्षा न होने से उसका जल पुनः कम हो जाता है परन्तु उसका जो जल गड्ढे में रह जाता है अर्थात् गङ्गाजी से अलग हो जाता है उसको गङ्गोज्झ कहते हैं। उस गङ्गोज्झ को मदिरा के समान महान अपवित्र माना गया है। गङ्गाजी से अलग होने के कारण वह गंदा हो जाता है और उसमें अनेक कीटाणु पैदा हो जाते हैं जो कि रोगों के कारण हैं परन्तु फिर कभी जोर की बाढ़ आ जाती है तो वह गङ्गोज्झ वापस गङ्गाजी में मिल जाता है। गङ्गाजी में मिलते ही उसकी एकदेशीयता , अपवित्रता , अशुद्धि आदि सभी दोष जाते हैं और वह पुनः महान पवित्र गङ्गाजल बन जाता है। ऐसे ही यह मनुष्य जब अहंकार को स्वीकार करके परमात्मा से विमुख हो जाता है तब इसमें परिच्छिन्नता , पराधीनता , जडता , विषमता , अभाव , अशान्ति , अपवित्रता आदि सभी दोष (विकार) आ जाते हैं परन्तु जब यह अपने अंशी परमात्मा के सम्मुख हो जाता है , उन्हीं की शरण में चला जाता है अर्थात् अपना अलग कोई व्यक्तित्व नहीं रखता तब उसमें आये हुए भिन्नता , पराधीनता आदि सभी दोष मिट जाते हैं। कारण कि स्वयं (चेतन स्वरूप) में दोष नहीं हैं , दोष तो अहंता (मैंपन) को स्वीकार करने से ही आते हैं।  अब भगवान यन्त्रारूढ़ हुए प्राणियों की परवशता को मिटाने का उपाय बताते हैं।

 

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