मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
भक्ति सहित कर्मयोग का विषय
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।18.65।।
मन्मना-मेरा चिंतन करो; भव-होओ; मत्भक्त:-मेरा भक्त; मद्याजी-मेरी पूजा करो; माम्–मुझे ; नमस्कुरू-प्रणाम करो; माम्-मेरे पास; एव-निश्चित रूप से; एष्यसि-आओगे; सत्यम् – वास्तव में; ते-तुमसे; प्रतिजाने-वचन देता हूँ; प्रिय:-प्रिय; असि-हो; मे-मुझको।
सदा मेरा चिंतन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी अराधना करो, मुझे प्रणाम करो, ऐसा करके तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें ऐसा वचन देता हूँ क्योंकि तुम मेरे अतिशय मित्र हो अर्थात तू मेरा भक्त हो जा, मेरे में मनवाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा और मुझे नमस्कार कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त हो जायगा – यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।।18.65।।
मद्भक्तः – साधक को सबसे पहले मैं भगवान का हूँ । इस प्रकार अपनी अहंता (मैंपन) को बदल देना चाहिये। कारण कि बिना अहंता के बदले साधन सुगमता से नहीं होता। अहंता के बदलने पर साधन सुगमता से , स्वाभाविक ही होने लगता है। अतः साधक को सबसे पहले ‘मद्भक्तः’ होना चाहिये। किसी का शिष्य बनने पर व्यक्ति अपनी अहंता को बदल देता है कि मैं तो गुरु महाराज का ही हूँ। विवाह हो जाने पर कन्या अपनी अहंता को बदल देती है कि मैं तो ससुराल की ही हूँ और पिता के कुल का सम्बन्ध बिलकुल छूट जाता है। ऐसे ही साधक को अपनी अहंता बदल देनी चाहिये कि मैं तो भगवान का ही हूँ और भगवान ही मेरे हैं । मैं संसार का नहीं हूँ और संसार मेरा नहीं है। [अहंता के बदलने पर ममता भी अपने आप बदल जाती है।] मन्मना भव – उपर्युक्त प्रकार से अपने को भगवान का मान लेने पर भगवान में स्वाभाविक ही मन लगने लगता है। कारण कि जो अपना होता है वह स्वाभाविक ही प्रिय लगता है और जहाँ प्रियता होती है वहाँ स्वाभाविक ही मन लगता है। अतः भगवान को अपना मानने से भगवान स्वाभाविक ही प्रिय लगते हैं। फिर मन से स्वाभाविक ही भगवान के नाम , गुण , प्रभाव , लीला आदि का चिन्तन होता है। भगवान के नाम का जप और स्वरूप का ध्यान बड़ी तत्परता से और लगनपूर्वक होता है। मद्याजी – अहंता बदल जाने पर अर्थात् अपने आपको भगवान का मान लेने पर संसार का सब काम भगवान की सेवा के रूप में बदल जाता है अर्थात् साधक पहले जो संसार का काम करता था वही काम अब भगवान का काम हो जाता है। भगवान का सम्बन्ध ज्यों-ज्यों दृढ़ होता जाता है त्यों ही त्यों उसका सेवाभाव पूजाभाव में परिणत होता जाता है। फिर वह चाहे संसार का काम करे , चाहे घर का काम करे , चाहे शरीर का काम करे , चाहे ऊँचा-नीचा कोई भी काम करे उसमें भगवान की पूजा का ही भाव बना रहता है। उसकी यह दृढ़ धारणा हो जाती है कि भगवान की पूजा के सिवाय मेरा कुछ भी काम नहीं है। मां नमस्कुरु – भगवान के चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम करके सर्वथा भगवान के समर्पित हो जाय। मैं प्रभु के चरणों में ही पड़ा हुआ हूँ – ऐसा मन में भाव रखते हुए जो कुछ अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति सामने आ जाय , उसमें भगवान का मङ्गलमय विधान मानकर परम प्रसन्न रहे। भगवान के द्वारा मेरे लिये जो कुछ भी विधान होगा वह मङ्गलमय ही होगा। पूरी परिस्थिति मेरी समझ में आये या न आये – यह बात दूसरी है पर भगवान का विधान तो मेरे लिये कल्याणकारी ही है । इसमें कोई सन्देह नहीं। अतः जो कुछ होता है वह मेरे कर्मों का फल नहीं है प्रत्युत भगवान के द्वारा कृपा करके केवल मेरे हित के लिये भेजा हुआ विधान है। कारण कि भगवान प्राणिमात्र के परम सुहृद होने से जो कुछ विधान करते हैं वह जीवों के कल्याण के लिये ही करते हैं। इसलिये भगवान अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भेजकर प्राणियों के पुण्य-पापों का नाश करके उन्हें परम शुद्ध बनाकर अपने चरणों में खींच रहे हैं – इस प्रकार दृढ़ता से भाव होना ही भगवान के चरणों में नमस्कार करना है।मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे – भगवान कहते हैं कि इस प्रकार मेरा भक्त होने से , मेरे में मनवाला होने से , मेरा पूजन करने वाला होने से और मुझे नमस्कार करने से तू मेरे को ही प्राप्त होगा अर्थात् मेरे में ही निवास करेगा (टिप्पणी प0 969) – ऐसी मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा प्यारा है। ‘प्रियोऽसि मे’ कहने का तात्पर्य है कि भगवान का जीवमात्र पर अत्यधिक स्नेह है। अपना ही अंश होने से कोई भी जीव भगवान को अप्रिय नहीं है। भगवान जीवों को चाहे चौरासी लाख योनियों में भेंजें , चाहे नरकों में भेजें। उनका उद्देश्य जीवों को पवित्र करने का ही होता है। जीवों के प्रति भगवान का जो यह कृपापूर्ण विधान है यह भगवान के प्यार का ही द्योतक है। इसी बात को प्रकट करने के लिये भगवान अर्जुन को जीवमात्र का प्रतिनिधि बनाकर ‘प्रियोऽसि मे’ वचन कहते हैं। जीवमात्र भगवान को अत्यन्त प्रिय है। केवल जीव ही भगवान से विमुख होकर प्रतिक्षण वियुक्त होने वाले संसार (धन-सम्पत्ति , कुटुम्बी , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण आदि) को अपना मानने लगता है जबकि संसार ने कभी जीव को अपना नहीं माना है। जीव ही अपनी तरफ से संसार से सम्बन्ध जोड़ता है। संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और जीव नित्य अपरिवर्तनशील है। जी वसे यही गलती होती है कि वह प्रतिक्षण बदलने वाले संसार के सम्बन्ध को नित्य मान लेता है। यही कारण है कि सम्बन्धी के न रहने पर भी उससे माना हुआ सम्बन्ध रहता है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही अनर्थ का कारण है। इस सम्बन्ध को मानने अथवा न मानने में सभी स्वतन्त्र हैं। अतः इस माने हुए सम्बन्ध का त्याग करके जिनसे हमारा वास्तविक और नित्यसम्बन्ध है उन भगवान की शरण में चले जाना चाहिये। पीछे के दो श्लोकों में अर्जुन को आश्वासन देकर अब भगवान आगे के श्लोक में अपने उपदेश की अत्यन्त गोपनीय सार बात बताते हैं।