मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
श्री गीताजी का माहात्म्य
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।18.67।।
इदम् – यह; ते – तुम्हारे द्वारा; न – कभी नहीं; अतपस्काय-वे जो संयमी नहीं है; न – कभी नहीं; अभक्ताय–वे जो भक्त नहीं हैं; कदाचन-किसी समय; न – कभी नहीं; च-भी; अशुश्रूषवे-वे जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के विरुद्ध हैं; वाच्यम्-कहने के लिए; न – कभी नहीं; च-भी; माम् – मेरे प्रति; यः-जो; अभ्यसूयति-द्वेष करता है।
यह उपदेश उन्हें कभी नहीं सुनाना चाहिए जो न तो संयमी है और न ही उन्हें जो भक्त नहीं हैं। इसे उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो आध्यात्मिक विषयों को सुनने के इच्छुक नहीं हैं और विशेष रूप से उन्हें भी नहीं सुनाना चाहिए जो मेरे प्रति द्वेष रखते हैं।।18.67।।
इदं ते नातपस्काय – पूर्वश्लोक में आये सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज – इस सर्वगुह्यतम वचन के लिये यहाँ ‘इदम्’ पद आया है।अपने कर्तव्य का पालन करते हुए स्वाभाविक जो कष्ट आ जाय , विपरीत परिस्थिति आ जाय , उसको प्रसन्नतापूर्वक सहने का नाम तप है। तप के बिना अन्तःकरण में पवित्रता नहीं आती और पवित्रता आये बिना अच्छी बातें धारण नहीं होतीं। इसलिये भगवान कहते हैं कि जो तपस्वी नहीं है , उसको यह सर्वगुह्यतम रहस्य नहीं कहना चाहिये। जो सहिष्णु अर्थात् सहनशील नहीं है वह भी अतपस्वी है। अतः उसको भी यह सर्वगुह्यतम रहस्य नहीं कहना चाहिये। यह सहिष्णुता चार प्रकार की होती है – (1) द्वन्द्वसहिष्णुता – राग-द्वेष , हर्ष-शोक , सुख-दुःख , मान-अपमान , निन्दा-स्तुति आदि द्वन्द्वों से रहित हो जाना – ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः (गीता 7। 28) द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः गीता (15। 5)। (2) वेगसहिष्णुता – काम , क्रोध , लोभ , द्वेष आदि के वेगों को उत्पन्न न होने देना – कामक्रोधोद्भवं वेगम् (गीता 5। 23)। (3) परमसहिष्णुता – दूसरों के मत की महिमा सुनकर अपने मत में सन्देह न होना और उनके मत से उद्विग्न न होना (टिप्पणी प0 987.1) – एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति (गीता 5। 5)।(4) परोत्कर्षसहिष्णुता – अपने में योग्यता , अधिकार , पद , त्याग , तपस्या आदि की कमी है तो भी दूसरों की योग्यता , अधिकार आदि की प्रसंशा सुनकर अपने में कुछ भी विकार न होना – विमत्सरः (गीता 4। 22) हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तः (गीता 12। 15)। ये चारों सहिष्णुताएँ सिद्धों की हैं। ये सहिष्णुताएँ जिसका लक्ष्य हों वही तपस्वी है और जिसका लक्ष्य न हों वही अतपस्वी है। ऐसे अतपस्वी अर्थात् असहिष्णु (टिप्पणी प0 987.2) को सर्वगुह्यतम रहस्य न सुनाने का मतलब है कि सम्पूर्ण धर्मों को मेरे में अर्पण करके तू अनन्यभाव से मेरी शरण आ जा – इस बात को सुनकर उसके मन में कोई विपरीत भावना या दोष आ जाय तो वह मेरी इस सर्वगुह्यतम बात को सह नहीं सकेगा और इसका निरादर करेगा जिससे उसका पतन हो जायगा। दूसरा भाव यह है कि जिसका अपनी वृत्तियों , आचरणों , भावों आदि को शुद्ध करने का उद्देश्य नहीं है । वह यदि मेरी तू मेरी शरण में आ जा तो मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा तू चिन्ता मत कर – इन बातों को सुनेगा तो मैं चिन्ता क्यों करूँ ? चिन्ता भगवान करेंगे – ऐसा उल्टा समझ कर दुर्गण-दुराचारों में लग जायेगा और अपना अहित कर लेगा। इससे मेरी सर्वगुह्यतम बात का दुरुपयोग होगा। अतः इसे कुपात्र को कभी मत सुनाना। नाभक्ताय कदाचन – जो भक्ति से रहित है , जिसका भगवान पर भरोसा , श्रद्धा-विश्वास और भक्ति न होने से उसकी यह विपरीत धारणा हो सकती है कि भगवान जो आत्मश्लाघी हैं , स्वार्थी हैं और दूसरों को वश में करना चाहते हैं। जो दूसरों को अपनी आज्ञा में चलाना चाहता है वह दूसरों को क्या निहाल करेगा ? उसके शरण होने से क्या लाभ ? आदि आदि। इस प्रकार दुर्भाव करके वह अपना पतन कर लेगा। इसलिये ऐसे अभक्त को कभी मत कहना। न चाशुश्रूषवे वाच्यम् – जो इस रहस्य को सुनना नहीं चाहता , इसकी उपेक्षा करता है उसको भी कभी मत सुनाना क्योंकि बिना रुचि के , जबर्दस्ती सुनाने से वह इस बात का तिरस्कार करेगा , उसको सुनना अच्छा नहीं लगेगा , उसका मन इस बात को फेंकेगा। यह भी उसके द्वारा एक अपराध होगा। अपराध करने वाले का भला नहीं होता। अतः जो सुनना नहीं चाहता उसको मत सुनाना। न च मां योऽभ्यसूयति – जो गुणों में दोषारोपण करता है उसको भी मत सुनाना क्योंकि उसका अन्तःकरण अत्यधिक मलिन होने के कारण वह भगवान की बात सुनकर उलटे उन में दोषारोपण ही करेगा। दोषदृष्टि रहने से मनुष्य महान लाभ से वञ्चित हो जाता है और अपना पतन कर लेता है। अतः दोषदृष्टि करना बड़ा भारी दोष है। यह दोष श्रद्धालुओं में भी रहता है। इसलिये साधक को सावधान होकर इस भयंकर दोष से बचते रहना चाहिये। भगवान ने भी (गीता 3। 31में) जहाँ अपना मत बताया। वहाँ ‘श्रद्धावन्तः अनसूयन्तः’ पदों से यह बात कही कि श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित मनुष्य कर्मों से छूट जाता है। ऐसे ही गीता के माहात्म्य (गीता 18। 71) में भी ‘श्रद्धावाननसूयश्च’ पदों से यह बताया कि श्रद्धावान और दोषदृष्टि से रहित मनुष्य केवल गीता को सुनने मात्र से वैकुण्ठ आदि लोकों को चला जाता है। इस गोपनीय रहस्य को दूसरों से मत कहना – यह कहने का तात्पर्य दूसरों को इस गोपनीय तत्त्व से वञ्चित रखना नहीं है प्रत्युत जिसकी भगवान और उनके वचनों पर श्रद्धा-भक्ति नहीं है , वह भगवान को स्वार्थी समझकर (जैसे साधारण मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये ही किसी को स्वीकार करते हैं) , भगवान पर दोषारोपण करके महान पतन की तरफ न चला जाय इसलिये उसको कहने का निषेध किया है। गीताजी का यह प्रभाव है कि जो प्रचार करेगा , उससे बढ़कर मेरा प्यारा कोई नहीं होगा – यह बात भगवान आगे को दो श्लोकों में बताते हैं।