मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
श्री गीताजी का माहात्म्य
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।18.70।।
अध्येष्यते-अध्ययन; च-और; यः-जो; इमं इस; धर्म्यम्-पवित्र; संवादम्-संवाद; आवयोः-हमारे; ज्ञान-ज्ञान; यज्ञेन-ज्ञान का समर्पण; तेन-उसके द्वारा; अहम्-मैं; इष्ट:-पूजा; स्याम्-होऊँगा; इति इस प्रकार; मे मेरा; मतिः-मत।
और मैं यह घोषणा करता हूँ कि जो मनुष्य हम दोनों के इस धर्ममय पवित्र संवाद का अध्ययन करेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा अर्थात वे ज्ञान के समर्पण द्वारा अपनी बुद्धि के साथ मेरी पूजा करेंगे – ऐसा मेरा मत है ।।18.70।।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः – तुम्हारा और हमारा यह संवाद शास्त्रों , सिद्धान्तों के साररूप धर्म से युक्त है। यह बहुत विचित्र बात है कि परस्पर साथ रहते हुए तुम्हारे हमारे बहुत वर्ष बीत गये परन्तु हम दोनों का ऐसा संवाद कभी नहीं हुआ । ऐसा धर्ममय संवाद तो कोई विलक्षण , अलौकिक अवसर आने पर ही होता है। जब तक मनुष्य की संसार से उकताहट न हो , वैराग्य या उपरति न हो और हृदय में जोरदार हलचल न मची हो तब तक उसकी असली जिज्ञासा जाग्रत नहीं होती। किसी कारणवश जब यह मनुष्य अपने कर्तव्य का निर्णय करने के लिये व्याकुल हो जाता है , जब अपने कल्याण के लिये कोई रास्ता नहीं दिखता , बिना समाधान के और कोई सांसारिक वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि किञ्चिन्मात्र भी अच्छी नहीं लगती , एकमात्र हृदय का सन्देह दूर करने की धुन (चटपटी) लग जाती है , एक ही जोरदार जिज्ञासा होती है और दूसरी तरफ से मन सर्वथा हट जाता है तब यह मनुष्य जहाँ से प्रकाश और समाधान मिलने की सम्भावना होती है वहाँ अपना हृदय खोलकर बात पूछता है , प्रार्थना करता है , शरण हो जाता है , शिष्य हो जाता है। पूछने वाले के मन में जैसी-जैसी उत्कण्ठा बढ़ती है , कहने वाले के मन में वैसी-वैसी बड़ी विचित्रता और विलक्षणता से समाधान करने वाली बातें पैदा होती हैं। जैसे दूध पीने के समय बछड़ा जब गाय के थनों पर मुहँ से बार-बार धक्का मारता है और थनों से दूध खींचता है तब गाय के शरीर में रहने वाला दूध थनों में एकदम उतर आता है। ऐसे ही मन में जोरदार दूध थनों में एकदम उतर आता है। ऐसे ही मन में जोरदार जिज्ञासा होने से जब जिज्ञासु बार-बार प्रश्न करता है तब कहने वाले के मन में नये-नये उत्तर पैदा होते हैं। सुनने वाले को ज्यों-ज्यों नयी बातें मिलती हैं त्यों-त्यों उसमें सुनने की नयी-नयी उत्कण्ठा पैदा होती रहती है। ऐसा होने पर ही वक्ता और श्रोता – इन दोनों का संवाद बढ़िया होता है। अर्जुन ने ऐसी उत्कण्ठा से पहले कभी बात नहीं पूछी और भगवान के मन में भी ऐसी बातें कहने की कभी नहीं आयी परन्तु जब अर्जुन ने जिज्ञासापूर्वक स्थितप्रज्ञस्य का भाषा ৷৷. (2। 54) यहाँ से पूछना प्रारम्भ किया वहीं से उन दोनों का प्रश्नोत्तर रूप से संवाद प्रारम्भ हुआ है। इसमें वेदों तथा उपनिषदों का सार और भगवान के हृदय का असली भाव है जिसको धारण करने से मनुष्य भयंकर से भयंकर परिस्थिति में भी अपने मनुष्यजन्म के ध्येय को सुगमतापूर्वक सिद्ध कर सकता है। प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति आने पर भी घबराये नहीं प्रत्युत प्रतिकूल परिस्थिति का आदर करते हुए उसका सदुपयोग करे अर्थात् अनुकूलता की इच्छा का त्याग करे क्योंकि प्रतिकूलता पहले किये पापों का नाश करने और आगे अनुकूलता की इच्छा का त्याग करने के लिये ही आती है। अनुकूलता की इच्छा जितनी ज्यादा होगी उतनी ही प्रतिकूल अवस्था भयंकर होगी। अनुकूलता की इच्छा का ज्यों-ज्यों त्याग होता जायगा त्यों-त्यों अनुकूलता का राग और प्रतिकूलता का भय मिटता जायगा। राग और भय – दोनों के मिटने से समता आ जायगी। समता परमात्मा का साक्षात स्वरूप है। गीता में समता की बात विशेषता से बतायी गयी और गीता ने इसी को योग कहा है। इस प्रकार कर्मयोग , ज्ञानयोग , भक्तियोग , ध्यानयोग , प्राणायाम आदि की विलक्षण-विलक्षण बातों का इसमें वर्णन हुआ है। अध्येष्यते का तात्पर्य है कि इस संवाद को कोई ज्यों-ज्यों पढ़ेगा , पाठ करेगा , याद करेगा , उसके भावों को समझने का प्रयास करेगा , त्यों ही त्यों उसके हृदय में उत्कण्ठा बढ़ेगी। वह ज्यों-ज्यों समझेगा त्यों-त्यों उसकी शङ्का का समाधान होगा। ज्यों-ज्यों समाधान होगा त्यों-त्यों इसमें अधिक रुचि पैदा होगी। ज्यों-ज्यो रुचि अधिक पैदा होगी त्यों-त्यों गहरे भाव उसकी समझमें आयेंगे और फिर वे भाव उसके आचरणों में , क्रियाओं में , बर्ताव में आने लगेंगे। आदरपूर्वक आचरण करने से वह गीता की मूर्ति बन जायगा , उसका जीवन गीतारूपी साँचे में ढल जायगा अर्थात् वह चलती-फिरती भगवद्गीता हो जायगी। उसको देखकर लोगों को गीता की याद आने लगेगी जैसे निषादराज गुह को देखकर माताओं को और दूसरे लोगों को लखनलाल की याद आती है (टिप्पणी प0 991)। ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्याम – यज्ञ दो प्रकार के होते हैं – द्रव्ययज्ञ और ज्ञानयज्ञ। जो यज्ञ पदार्थों और क्रियाओं की प्रधानता से किया जाता है वह द्रव्ययज्ञ कहलाता है और उत्कण्ठा से केवल अपनी आवश्यक वास्तविकता को जानने के लिये जो प्रश्न किये जाते हैं – विज्ञ पुरुषों द्वारा उनका समाधान किया जाता है , उनका गहरा विचार किया जाता है , विचार के अनुसार अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव किया जाता है तथा वास्तविक तत्त्व को जानकर ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाता है वह ज्ञानयज्ञ कहलाता है परन्तु यहाँ भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम्हारे-हमारे संवाद का कोई पाठ करेगा तो मैं उसके द्वारा भी ज्ञानयज्ञ से पूजित हो जाऊँगा। इसमें कारण यह है कि जैसे प्रेमी भक्त को कोई भगवान की बात सुनाये , उसकी याद दिलाये तो वह बड़ा प्रसन्न होता है। ऐसे ही कोई गीता का पाठ करे , अभ्यास करे तो भगवान को अपने अनन्य भक्त की , उसकी उत्कण्ठापूर्वक जिज्ञासा की और उसे दिये हुए उपदेश की याद आ जाती है और वे बड़े प्रसन्न होते हैं एवं उस पाठ , अभ्यास आदि को ज्ञानयज्ञ मानकर उससे पूजित होते हैं। कारण कि पाठ , अभ्यास आदि करने वाले के हृदय में उसके भावों के अनुसार भगवान का नित्यज्ञान विशेषता से स्फुरित होने लगता है। इति मे मतिः – ऐसा कहने का तात्पर्य है कि जब कोई गीता का पाठ करता है तो मैं उसको सुनता हूँ क्योंकि मैं सब जगह रहता हूँ – मया ततमिदं सर्वम् (गीता 9। 4) और सब जगह ही मेरे कान हैं – सर्वतःश्रुतिमल्लोके (गीता 13। 13)। अतः उस पाठ को सुनते ही मेरे हृदय में विशेषता से ज्ञान , प्रेम , दया आदि का समुद्र लहराने लगता है और गीतोपदेश की याद में मेरी बुद्धि सराबोर हो जाती है। वह पूजन करता है – ऐसी बात नहीं है वह तो पाठ करता है परन्तु मैं उससे पूजित हो जाता हूँ अर्थात् उसको ज्ञानयज्ञ का फल मिल जाता है। दूसरा भाव यह है कि पाठ करने वाला यदि उतने गहरे भावों में नहीं उतरता , केवल पाठमात्र या यादमात्र करता है तो भी उससे मेरे हृदय में तेरे और मेरे सारे संवाद की (उत्कण्ठापूर्वक किये गये तेरे प्रश्नों की और मेरे दिये हुये गहरे वास्तविक उत्तरों की) एक गहरी मीठी-मीठी स्मृति बार-बार आने लगती है। इस प्रकार गीता का अध्ययन करने वाला मेरी बड़ी भारी सेवा करता है – ऐसा मैं मान लेता हूँ। विदेश में किसी जगह एक जलसा हो रहा था। उसमें बहुत से लोग इकट्ठे हुए थे। एक पादरी उस जलसे में एक लड़के को ले आया। वह लड़का पहले नाटक में काम किया करता था। पादरी ने उस लड़के को दस-पन्द्रह मिनट का एक बहुत बढ़िया व्याख्यान सिखाया। साथ ही ढंग से उठना , बैठना , खड़े होना , इधर-उधर , ऐसा-ऐसा देखना आदि व्याख्यान की कला भी सिखायी। व्याख्यान में बड़े ऊँचे दर्जे की अंग्रेजी का प्रयोग किया गया था। व्याख्यान का विषय भी बहुत गहरा था। पादरी ने व्याख्यान देने के लिये उस बालक को मेज पर खड़ा कर दिया। बच्चा खड़ा हो गया और बड़े मिजाज से दायें-बायें देखने लगा और बोलने की जैसी-जैसी रिवाज है वैसे-वैसे सम्बोधन देकर बोलने लगा। वह नाटक में रहा हुआ था , उसको बोलना आता ही था । अतः वह गंभीरता से मानो अर्थों को समझते हुए की मुद्रा में ऐसा विलक्षण बोला कि जितने सदस्य बैठे थे वे सब अपनी-अपनी कुर्सियों पर उछलने लगे। सदस्य इतने प्रसन्न हुए कि व्याख्यान पूरा होते ही वे रुपयों की बौछार करने लगे। अब वह बालक सभा के ऊपर ही ऊपर घुमाया जाने लगा। उसको सब लोग अपने-अपने कन्धों पर लेने लगे परन्तु उस बालकको यह पता ही नहीं था कि मैंने क्या कहा है ? वह तो बेचारा ज्यादा पढ़ा-लिखा न होने से अंग्रेजी के भावों को भी पूरा नहीं समझता था पर सभा वाले सभी लोग समझते थे। इसी प्रकार कोई गीता का अध्ययन करता है , पाठ करता है तो वह भले ही उसके अर्थ को , भावों को न समझे पर भगवान तो उसके अर्थ को , भावों को समझते हैं। इसलिये भगवान कहते हैं कि मैं उसके अध्ययनरूप , पाठरूप ज्ञानयज्ञ से पूजित हो जाता हूँ। सभा में जैसे बालक के व्याख्यान से सभापति तो खुश हुआ ही पर उसके साथ-साथ सभासद् भी बड़े खुश हुए और उत्साहपूर्वक बच्चे का आदर करने लगे। ऐसे ही गीता पाठ करने वाले से भगवान ज्ञानयज्ञ से पूजित होते हैं तथा स्वयं वहाँ निवास करते हैं। साथ ही साथ प्रयाग आदि तीर्थ , देवता , ऋषि , योगी , दिव्य नाग , गोपाल , गोपिकाएँ , नारद , उद्धव आदि भी वहाँ निवास करते हैं (टिप्पणी प0 992.1)। जो गीता का प्रचार और अध्ययन भी न कर सके, इसके लिये आगे के श्लोक में उपाय बताते हैं।