मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
श्री गीताजी का माहात्म्य
सञ्जय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।18.74।।
सञ्जयःउवाच-संजय ने कहा; इति–इस प्रकार; अहम्-मैं; वासुदेवस्य-श्रीकृष्ण का; पार्थस्य-तथा अर्जुन का; च-और; महाआत्म्न:-उदार चित्त आत्मा का; संवादम्-वार्तालाप; इमम् – यह; अश्रौषम्-सुना है; अद्भुतम्-अद्भुत; रोमहर्षणम्-शरीर के रोंगटे खड़े करने वाला।
संजय ने कहाः इस प्रकार से मैंने वासुदेव पुत्र श्रीकृष्ण और उदारचित्त पृथा पुत्र अर्जुन के बीच अद्भुत संवाद सुना। यह इतना रोमांचकारी संदेश है कि इससे मेरे शरीर के रोंगटे खड़े हो गए हैं।।18.74।।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः – सञ्जय कहते हैं कि इस तरह मैंने भगवान वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुन का यह संवाद सुना जो कि अत्यन्त अद्भुत ,विलक्षण है और इसकी यादमात्र हर्ष के मारे रोमाञ्चित करने वाली है। यहाँ ‘इति’ पद का तात्पर्य है कि पहले अध्याय के बीसवें श्लोक में ‘अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः’ पदों से सञ्जय – श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादरूप गीता का आरम्भ करते हैं और यहाँ ‘इति’ पद से उस संवाद की समाप्ति करते हैं। अर्जुन के लिये ‘महात्मनः’ विशेषण देने का तात्पर्य है कि अर्जुन कितने महान विलक्षण पुरुष हैं जिनकी आज्ञा का पालन स्वयं भगवान करते हैं । अर्जुन कहते हैं कि हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कर दो (गीता 1। 21) तो भगवान दोनों सेनाओं के बीच में रथको खड़ा कर देते हैं (गीता 1। 24)। गीता में अर्जुन जहाँ-जहाँ प्रश्न करते हैं वहाँ-वहाँ भगवान बड़े प्यार से और बड़ी विलक्षण रीति से प्रायः विस्तारपूर्वक उत्तर देते हैं। इस प्रकार महात्मा अर्जुन के और भगवान वासुदेव के संवाद को मैंने सुना है। संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् – इस संवाद में अद्भुत और रोमहर्षणपना क्या है ? शास्त्रों में प्रायः ऐसी बात आती है कि संसार की निवृत्ति करने से ही मनुष्य पारमार्थिक मार्ग पर चल सकता है और उसका कल्याण हो सकता है। मनुष्यों में भी प्रायः ऐसी ही धारण बैठी हुई है कि घर , कुटुम्ब आदि को छोड़कर साधु-संन्यासी होने से ही कल्याण होता है परन्तु गीता कहती है कि कोई भी परिस्थिति , अवस्था , घटना , काल आदि क्यों न हो उसी के सदुपयोग से मनुष्य का कल्याण हो सकता है। इतना ही नहीं , वह परिस्थिति बढ़िया से बढ़िया हो या घटिया से घटिया , सौम्य से सौम्य हो या घोर से घोर विहित युद्ध जैसी प्रवृत्ति हो जिसमें दिन भर मनुष्यों का गला काटना पड़ता है उसमें भी मनुष्य का कल्याण हो सकता है , मुक्ति हो सकती है (टिप्पणी प0 999)। कारण कि जन्म-मरणरूप बन्धन में संसार का राग ही कारण है (गीता 13। 21)। उस राग को मिटाने में परिस्थिति का सदुपयोग करना ही हेतु है अर्थात् जो पुरुष परिस्थिति में राग-द्वेष न करके अपने कर्तव्य का पालन करता है , वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। यही इस संवाद में अद्भुतपना है। भगवान का स्वयं अवतार लेकर मनुष्य जैसा काम करते हुए अपने आप को प्रकट कर देना और ‘मेरी शरण में आ जा’ यह अत्यन्त गोपनीय रहस्य की बात कह देना – यही संवाद में रोमहर्षण करने वाला , प्रसन्न करने वाला , आनन्द देने वाला है। पारमार्थिक मार्ग में सच्चे साधक को जिस किसी से लाभ होता है उसकी वही कृतज्ञता प्रकट करता ही है। अतः सञ्जय भी आगे के तीन श्लोकों में व्यासजी की कृतज्ञता प्रकट करते हैं।