मोक्षसंन्यासयोग- अठारहवाँ अध्याय
त्याग का विषय
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।18.8।।
दुःखम् – कष्टदायक; इति-इस प्रकार; एव-निश्चय ही; यत्-जो; कर्म-कार्य; काय-शरीर के लिए; क्लेश -कष्टपूर्ण; भयात्-भय से; त्यजेत्-त्याग देता है; सः-वह; कृत्वा-करके; राजसम्-रजोगुण में; त्यागम्-त्याग; न – कभी नहीं; एव-निश्चय ही; त्याग-त्यागः फलम्-फल को; लभेत्–प्राप्त करता है।
नियत कर्त्तव्यों को कष्टप्रद और शरीर को कष्ट देने का कारण समझकर किया गया त्याग रजोगुणी कहलाता है। ऐसा त्याग कभी लाभदायक और उन्नत करने वाला नहीं होता अर्थात जो मनुष्य, नियत कर्तव्यों और कर्मों को दु:ख रूप समझकर शारीरिक क्लेश के भय से त्याग देता है, वह मनुष्य इस प्रकार किये गए उस राजसिक त्याग को करके कदापि त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता है।।18.8।।
दुःखमित्येव यत्कर्म – यज्ञ , दान आदि शास्त्रीय नियत कर्मों को करने में केवल दुःख ही भोगना पड़ता है और उनमें है ही क्या क्योंकि उन कर्मों को करने के लिये अनेक नियमों में बँधना पड़ता है और खर्चा भी करना पड़ता है – इस प्रकार राजस पुरुष को उन कर्मों में केवल दुःख ही दुःख दिखता है। दुःख दिखने का कारण यह है कि उनका परलोक पर , शास्त्रों पर , शास्त्रविहित कर्मों पर और उन कर्मों के परिणाम पर श्रद्धा-विश्वास नहीं होता। कायक्लेशभयात्त्यजेत् – राजस मनुष्य को शास्त्रमर्यादा और लोकमर्यादा के अनुसार चलने से शरीर में क्लेश अर्थात् परिश्रमका अनुभव होता है (टिप्पणी प0 876)। राजस मनुष्य को अपने वर्ण , आश्रम आदि के धर्म का पालन करने में और माता-पिता , गुरु , मालिक आदि की आज्ञा का पालन करने में पराधीनता और दुःख का अनुभव होता है तथा उनकी आज्ञा भङ्ग करके जैसी मरजी आये वैसा करने में स्वाधीनता और सुखका अनुभव होता है। राजस मनुष्यों के विचार यह होते हैं कि गृहस्थ में आराम नहीं मिलता , स्त्री-पुत्र आदि हमारे अनुकूल नहीं हैं अथवा सब कुटुम्बी मर गये हैं , घर में काम करने के लिये कोई रहा नहीं , खुद को तकलीफ उठानी पड़ती है इसलिये साधु बन जाएं तो आराम से रहेंगे । रोटी , कपड़ा आदि सब चीजें मुफ्त में मिल जायेंगीं , परिश्रम नहीं करना पड़ेगा, कोई ऐसी सरकारी नौकरी मिल जाय जिससे काम कम करना पड़े और रुपये आराम से मिलते रहें , हम काम न करें तो भी उस नौकरी से हमें कोई छुड़ा न सके , हम नौकरी छोड़ देंगे तो हमें पेंशन मिलती रहेगी इत्यादि। ऐसे विचारों के कारण उन्हें घर का काम-धन्धा करना अच्छा नहीं लगता और वे उसका त्याग कर देते हैं। यहाँ शङ्का होती है कि ज्ञानप्राप्ति के साधनों में दुःख और दोष को बार-बार देखने की बात कही है (गीता 13। 8) और यहाँ कर्मों में दुःख देखकर उनका त्याग करने को राजस त्याग कहा है अर्थात् कर्मों के त्याग का निषेध किया है – इन दोनों बातों में परस्पर विरोध प्रतीत होता है। इसका समाधान है कि वास्तव में इन दोनों में विरोध नहीं है प्रत्युत इन दोनों का विषय अलग-अलग है। वहाँ (गीता 13। 8 में) भोगों में दुःख और दोष को देखने की बात है और यहाँ नियत कर्तव्यकर्मों में दुःख को देखने की बात है। इसलिये वहाँ भोगों का त्याग करने का विषय है और यहाँ कर्तव्यकर्मों का त्याग करने का विषय है। भोगों का तो त्याग करना चाहिये पर कर्तव्यकर्मों का त्याग कभी नहीं करना चाहिये। कारण कि जिन भोगों में सुखबुद्धि और गुणबुद्धि हो रही है उन भोगों में बार-बार दुःख और दोष को देखने से भोगों से वैराग्य होगा जिससे परमात्मतत्त्वकी प्राप्त होगी परन्तु नियत कर्तव्यकर्मों में दुःख देखकर उन कर्मों का त्याग करने से सदा पराधीनता और दुःख भोगना पड़ेगा – यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः (गीता 3। 9)। तात्पर्य यह हुआ कि भोगों में दुःख और दोष देखने से भोगासक्ति छूटेगी जिससे कल्याण होगा और कर्तव्य में दुःख देखने से कर्तव्य छूटेगा जिससे पतन होगा। कर्तव्यकर्मों का त्याग करने में तो राजस और तामस – ये दो भेद होते हैं पर परिणाम (आलस्य , प्रमाद, अतिनिद्रा आदि) में दोनों एक हो जाते हैं अर्थात् परिणाम में दोनों ही तामस हो जाते हैं जिसका फल अधोगति होता है – अधो गच्छन्ति तामसाः (गीता 14। 18)। एक शङ्का यह भी हो सकती है कि सत्सङ्ग , भगवत्कथा , भक्तचरित्र सुनने से किसी को वैराग्य हो जाय तो वह प्रभु को पाने के लिये आवश्यक कर्तव्यकर्मों को भी छोड़ देता है और केवल भगवान के भजन में लग जाता है। इसलिये उसका वह कर्तव्यकर्मों का त्याग राजस कहा जाना चाहिये ऐसी बात नहीं है। सांसारिक कर्मों को छोड़कर जो भजन में लग जाता है उसका त्याग राजस या तामस नहीं हो सकता। कारण कि भगवान को प्राप्त करना मनुष्यजन्म का ध्येय है । अतः उस ध्येय की सिद्धि के लिये कर्तव्यकर्मों का त्याग करना वास्तव में कर्तव्य का त्याग करना नहीं है प्रत्युत असली कर्तव्य को करना है। उस असली कर्तव्य को करते हुए आलस्य , प्रमाद आदि दोष नहीं आ सकते क्योंकि उसकी रुचि भगवान में रहती है परन्तु राजस और तामस त्याग करने वालों में आलस्य , प्रमाद आदि दोष आयेंगे ही क्योंकि उसकी रुचि भोगों में रहती है। स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् – त्याग का फल शान्ति है। राजस मनुष्य त्याग करके भी त्याग के फल (शान्ति) को नहीं पाता। कारण कि उसने जो त्याग किया है वह अपने सुख-आराम के लिये ही किया है। ऐसा त्याग तो पशु-पक्षी आदि भी करते हैं। अपने सुख-आराम के लिये शुभकर्मों का त्याग करने से राजस मनुष्य को शान्ति तो नहीं मिलती पर शुभकर्मों के त्याग का फल दण्डरूप से जरूर भोगना पड़ता है।