The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद

 

 

Bhagavat Gita chapter 18- Moksha Sanyas Yogaअनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।

मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।18.25।।

 

अनुबन्धाम्-फलस्वरूप; क्षयम्-क्षति; हिंसाम्-कष्ट; अनपेक्ष्य-उपेक्षा करना; च-और; पौरुषम् – मनुष्य का सामर्थ्य; मोहात्-मोह से; आरभ्यते-प्रारम्भ होता है; कर्म-कर्म; यत्-जो; तत्-वह; तामसम्-तमोगुण; उच्यते-कहा जाता है। 

 

जो कर्म अथवा कार्य मोहवश होकर, अपनी क्षमता का आंकलन , कर्म का परिणाम , कर्म के परिणामस्वरूप होने वाली हानि और दूसरों की क्षति अथवा उस कर्म के फलस्वरूप दूसरों को होने पर कष्ट पर विचार किए बिना आरम्भ किए जाते हैं वे तमोगुणी या तामस कहलाते हैं।।18.25।।

 

अनुबन्धम् – जिसको फल की कामना होती है वह मनुष्य तो फलप्राप्ति के लिये विचारपूर्वक कर्म करता है परन्तु तामस मनुष्य में मूढ़ता की प्रधानता होने से वह कर्म करने में विचार करता ही नहीं। इस कार्य को करने से मेरा तथा दूसरे प्राणियों का अभी और परिणाम में कितना नुकसान होगा ? कितना अहित होगा ? इस अनुबन्ध अर्थात् परिणाम को न देखकर वह कार्य आरम्भ कर देता है। क्षयम् – इस कार्य को करने से अपने और दूसरों के शरीरों की कितनी हानि होगी धन और समय का कितना खर्चा होगा ? इससे दुनिया में मेरा कितना अपमान , निन्दा , तिरस्कार आदि होगा ? मेरा लोक-परलोक बिगड़ जायगा आदि नुकसान को न देखकर ही वह कार्य आरम्भ कर देता है। हिंसाम् – इस कर्म से कितने जीवों की हत्या होगी ? कितने श्रेष्ठ व्यक्तियों के सिद्धान्तों और मान्यताओं की हत्या हो जायगी ? दूसरे मनुष्यों की मनुष्यता की कितनी भारी हिंसा हो जायगी ? अभी के और भावी जीवों के शुद्ध भाव , आचरण , वेश-भूषा , खान-पान आदि की कितनी भारी हिंसा हो जायगी ? इससे मेरा और दुनिया का कितना अधःपतन होगा आदि ? हिंसा को न देखकर ही वह कार्य आरम्भ कर देता है। अनवेक्ष्य च पौरुषम् – इस काम को करने की मेरे में कितनी योग्यता है? कितना बल , सामर्थ्य है ? मेरे पास कितना समय है? कितनी बुद्धि है? कितनी कला है? कितना ज्ञान है आदि ? अपने पौरुष (पुरुषार्थ) को न देखकर ही वह कार्य आरम्भ कर देता है। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते – तामस मनुष्य कर्म करते समय उसके परिणाम , उससे होने वाले नुकसान , हिंसा और अपनी सामर्थ्य का कुछ भी विचार न करके जब जैसा मन में भाव आया उसी समय बिना विवेक-विचार के वैसा ही कर बैठता है। इस प्रकार किया गया कर्म तामस कहलाता है। अब भगवान सात्त्विक कर्ता के लक्षण बताते हैं।

 

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