The Bhagavad Gita Chapter 18

 

 

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मोक्षसंन्यासयोग-  अठारहवाँ अध्याय

तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान , कर्म , कर्ता , बुद्धि ,धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद

 

 

Bhagavat Gita chapter 18- Moksha Sanyas Yogaमुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।

सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।18.26।।

 

मुक्तसङ्ग: – सांसारिक आसक्ति से मुक्त; ऽनहंवादी ( अनहम्-वादी ) – अहं से मुक्त; धृति-दृढ़संकल्प; उत्साह – उत्साह सहित; समन्वितः – सम्पन्न; सिद्ध्यसिद्ध्यो ( सिद्धि असिद्धयोः ) – सफलता तथा विफलता; निर्विकारः – अप्रभावित; कर्ता – कर्ता; सात्त्विकः-सत्वगुणी; उच्यते – कहा जाता है।

 

जो कर्ता सांसारिक आसक्ति से रहित और अहंकार से मुक्त होकर , धैर्य , दृढ – संकल्प और उत्साह से युक्त , कार्य की सिद्धि (सफलता) और असिद्धि (विफलता) में निर्विकार रहता है , वह कर्ता सात्त्विक अथवा सतोगुणी कहा जाता है।।18.26।।

 

मुक्तसङ्गः – जैसे सांख्ययोगी का कर्मों के साथ राग नहीं होता ऐसे सात्त्विक कर्ता भी रागरहित होता है। कामना , वासना , आसक्ति , स्पृहा , ममता आदि से अपना सम्बन्ध जोड़ने के कारण ही वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ , परिस्थिति , घटना आदि में आसक्ति , लिप्तता होती है। सात्त्विक कर्ता इस लिप्तता से सर्वथा रहित होता है। अनहंवादी – पदार्थ , वस्तु , परिस्थिति आदि को लेकर अपने में जो एक विशेषता का अनुभव करना है – यह अहंवदनशीलता है। यह अहंवदनशीलता आसुरीसम्पत्ति होने से अत्यन्त निकृष्ट है। सात्त्विक कर्ता में यह अहंवदनशीलता , अभिमान तो रहता ही नहीं प्रत्युत मैं इन चीजों का त्यागी हूँ , मेरे में यह अभिमान नहीं है , मैं निर्विकार हूँ , मैं सम हूँ , मैं सर्वथा निष्काम हूँ , मैं संसार के सम्बन्ध से रहित हूँ – इस तरह के अहंभाव का भी उसमें अभाव रहता है। धृत्युत्साहसमन्वितः – कर्तव्यकर्म करते हुए विघ्न-बाधाएँ आ जाएं उस कर्म का परिणाम ठीक न निकले , लोगों में निन्दा हो जाय तो भी विघ्न-बाधा आदि न आने पर जैसा धैर्य रहता है वैसा ही धैर्य विघ्न-बाधा आने पर भी नित्य-निरन्तर बना रहे – इसका नाम धृति है और सफलता ही सफलता मिलती चली जाय , उन्नति होती चली जाय , लोगों में मान – आदर – महिमा आदि बढ़ते चले जायँ – ऐसी स्थिति में मनुष्य के मन में जैसी उम्मेदवारी , सफलता के प्रति उत्साह रहता है वैसी ही उम्मेदवारी इससे विपरीत अर्थात् असफलता , अवनति , निन्दा आदि हो जाने पर भी बनी रहे – इसका नाम उत्साह है। सात्त्विक कर्ता इस प्रकार की धृति और उत्साह से युक्त रहता है।सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः – सिद्धि और असिद्धि में अपने में कुछ भी विकार न आये , अपने पर कुछ भी असर न पड़े अर्थात् कार्य ठीक तरह से साङ्गोपाङ्ग पूर्ण हो जाय अथवा पूरा उद्योग करते हुए अपनी शक्ति , समझ , समय , सामर्थ्य आदि को पूरा लगाते हुए भी कार्य पूरा न हो फल प्राप्त हो अथवा न हो तो भी अपने अन्तःकरण में प्रसन्नता और खिन्नता , हर्ष और शोक का न होना ही सिद्धि-असिद्धि में निर्विकार रहना है। कर्ता सात्त्विक उच्यते – ऐसा आसक्ति तथा अहंकार से रहित , धैर्य तथा उत्साह से युक्त और सिद्धि-असिद्धि में निर्विकार कर्ता सात्त्विक कहा जाता है। इस श्लोक में छः बातें बतायी गयी हैं – सङ्ग , अहंवदनशीलता , धृति , उत्साह , सिद्धि और असिद्धि। इनमें से पहली दो बातों से रहित , बीच की दो बातों से युक्त और अन्त की दो बातों में निर्विकार रहने के लिये कहा गया है।   अब राजस कर्ता के लक्षण बताते हैं।

 

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