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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥10.22॥
वेदानाम् – वेदों में; साम–वेदः–सामवेद; अस्मि–हूँ; देवानाम्–देवताओं में; अस्मि–हूँ; वासवः–स्वर्ग के देवताओं का राजा इन्द्र; इन्द्रियाणाम् इन्द्रियों में; मनः–मन; च–और; अस्मि–हूँ; भूतानाम्–जीवों में; अस्मि–हूँ; चेतना–जीवन दायिनी शक्ति।
मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में स्वर्ग का राजा इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और भूत प्राणियों ( जीवों ) की चेतना अर्थात् जीवन–शक्ति हूँ॥10.22॥
‘वेदानां सामवेदोऽस्मि ‘ – वेदों की जो ऋचाएँ स्वर सहित गायी जाती हैं उनका नाम सामवेद है। सामवेद में इन्द्ररूप से भगवान की स्तुति का वर्णन है। इसलिये सामवेद भगवान की विभूति है। ‘देवानामस्मि वासवः’ – सूर्य , चन्द्रमा आदि जितने भी देवता हैं उन सबमें इन्द्र मुख्य है और सबका अधिपति है। इसलिये भगवान ने उसको अपनी विभूति बताया है। ‘इन्द्रियाणां मनश्चास्मि’ – नेत्र , कान आदि सब इन्द्रियों में मन मुख्य है। सब इन्द्रियाँ मन के साथ रहने से (मन को साथ में लेकर ) ही काम करती हैं। मन साथ में न रहने से इन्द्रियाँ अपना काम नहीं करतीं। यदि मन का साथ न हो ते इन्द्रियों के सामने विषय आने पर भी विषयों का ज्ञान नहीं होता। मन में यह विशेषता भगवान से ही आयी है। इसलिये भगवान ने मन को अपनी विभूति बताया है। ‘भूतानामस्मि चेतना ‘ – सम्पूर्ण प्राणियों की जो चेतनाशक्ति , प्राणशक्ति है जिससे मरे हुए आदमी की अपेक्षा सोये हुए आदमी में विलक्षणता दिखती है उसे भगवान ने अपनी विभूति बताया है। इन विभूतियों में जो विशेषता है वह भगवान से ही आयी है। इनकी स्वतन्त्र विशेषता नहीं है – स्वामी रामसुखदास जी )