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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
08-11 फल और प्रभाव सहित भक्तियोग का वर्णन
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥10.11॥
तेषाम् उनके लिए; एव–केवल; अनुकम्पा–अर्थम् विशेष कृपा करने के लिए; अहम्–मैं; अज्ञान–जम्–अज्ञानता का कारण; तमः–अंधकार; नाशयामि–दूर करता हूँ; आत्म–भाव–उनके हृदयों में; स्थ:-निवास; ज्ञान–ज्ञान के; दीपेन–दीपक द्वारा; भास्वता–प्रकाशित।
हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अंतःकरण – उनके स्वरूप में स्थित हुआ और रहने वाला मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ अर्थात उन पर करुणा और कृपा करने के लिए ही मैं उनके हृदयों में वास करता हूँ और ज्ञान के प्रकाशमय दीपक द्वारा अंधकार जनित अज्ञान को नष्ट करता हूँ।॥10.11॥
(‘तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः’ – उन भक्तों के हृदय में कुछ भी सांसारिक इच्छा नहीं होती। इतना ही नहीं , उनके भीतर मुझे छोड़कर मुक्ति तक की भी इच्छा नहीं होती (टिप्पणी प0 547)। अभिप्राय है कि वे न तो सांसारिक चीजें चाहते हैं और न पारमार्थिक चीजें (मुक्ति , तत्त्वबोध आदि ) ही चाहते हैं। वे तो केवल प्रेम से मेरा भजन ही करते हैं। उनके इस निष्कामभाव और प्रेमपूर्वक भजन करने को देखकर मेरा हृदय द्रवित हो जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा उनकी कुछ सेवा बन जाय , वे मेरे से कुछ ले लें परन्तु वे मेरे से कुछ लेते नहीं तो द्रवित हृदय होने के कारण केवल उन पर कृपा करने के लिये कृपा परवश होकर मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकार को दूर कर देता हूँ। मेरे द्रवित हृदय होने का कारण यह है कि मेरे भक्तों में किसी प्रकार की किञ्चिन्मात्र भी कमी न रहे। ‘आत्मभावस्थः’ – मनुष्य अपना जो होनापन मानते हैं कि मैं हूँ तो यह होनापन प्रायः प्रकृति (शरीर ) के साथ सम्बन्ध जोड़कर ही मानते हैं अर्थात् तादात्म्य के कारण शरीर के बदलने में अपना बदलना मानते हैं । जैसे – मैं बालक हूँ , मैं जवान हूँ , मैं बलवान् हूँ , मैं निर्बल हूँ इत्यादि परन्तु इन विशेषणों को छोड़कर तत्त्व की दृष्टि से इन प्राणियों का अपना जो होनापन है , वह प्रकृति से रहित है। इसी होनेपन में सदा रहने वाले प्रभु के लिये यहाँ ‘आत्मभावस्थः’ पद आया है। ‘भास्वता ज्ञानदीपेन नाशयामि’ – प्रकाशमान ज्ञानदीपक के द्वारा उन प्राणियों के अज्ञानजन्य अन्धकार का नाश कर देता हूँ। तात्पर्य है कि जिस अज्ञान के कारण ‘मैं कौन हूँ’ और ‘मेरा स्वरूप क्या है’ – ऐसा जो अनजानपना रहता है उस अज्ञान का मैं नाश कर देता हूँ अर्थात् तत्त्वबोध करा देता हूँ। जिस तत्त्वबोध की महिमा शास्त्रों में गायी गयी है उसके लिये उनको श्रवण , मनन , निदिध्यासन आदि साधन नहीं करने पड़ते , कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता , बल्कि मैं स्वयं उनको तत्त्वबोध करा देता हूँ। विशेष बात- भक्त जब अनन्यभाव से केवल भगवान में लगे रहते हैं तब सांसारिक सिद्धि-असिद्धि में सम रहना – यह समता भी भगवान देते हैं और जिसके समान पवित्र कोई नहीं है वह तत्त्वबोध (स्वरूपज्ञान) भी भगवान स्वयं देते हैं। भगवान के स्वयं देने का तात्पर्य है कि भक्तों को इनके लिये इच्छा और प्रयत्न नहीं करना पड़ता बल्कि भगवत्कृपा से उनमें समता स्वतः आ जाती है। उनको तत्त्वबोध स्वतः हो जाता है। कारण कि जहाँ भक्तिरूपी माँ होगी वहाँ उसके वैराग्य और ज्ञानरूपी बेटे रहेंगे ही। इसलिये भक्ति के आने पर समता – संसार से वैराग्य और अपने स्वरूप का बोध – ये दोनों स्वतः आ जाते हैं। इसका तात्पर्य है कि जो साधनजन्य पूर्णता होती है उसकी अपेक्षा भगवान के द्वारा की हुई पूर्णता बहुत विलक्षण होती है। इसमें अपूर्णता की गंध भी नहीं रहती। जैसे भगवान अनन्यभाव से भजन करने वाले भक्तों का योगक्षेम वहन करते हैं (गीता 9। 22) ऐसे ही जो केवल भगवान के ही परायण हैं – ऐसे प्रेमी भक्तों को (उनके न चाहने पर भी और उनके लिये कुछ भी बाकी न रहने पर भी ) भगवान समता और तत्त्वबोध देते हैं। यह सब देने पर भी भगवान उन भक्तों के ऋणी ही बने रहते हैं। भागवत में भगवान ने गोपियों के लिये कहा है कि मेरे साथ सर्वथा निर्दोष (अनिन्द्य) सम्बन्ध जोड़ने वाली गोपियों का मेरे पर जो एहसान है , ऋण है , उसको मैं देवताओं के समान लम्बी आयु पाकर भी नहीं चुका सकता। कारण कि बड़े-बड़े ऋषि , मुनि , त्यागी आदि भी घर की जिस अपनापन रूप की बेड़ियों को सुगमता से नहीं तोड़ पाते उनको उन्होंने तोड़ डाला है (टिप्पणी प0 548)। भक्त भगवान के भजन में इतने तल्लीन रहते हैं कि उनको यह पता ही नहीं रहता कि हमारे में समता आयी है , हमें स्वरूप का बोध हुआ है। अगर कभी पता लग भी जाता है तो वे आश्चर्य करते हैं कि ये समता और बोध कहाँ से आये ? वे अपन में कोई विशेषता न दिखे इसके लिये भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे नाथ ! आप समता , बोध ही नहीं , दुनिया के उद्धार का अधिकार भी दे दें तो भी मेरे को कुछ मालूम नहीं होना चाहिये कि मेरे में यह विशेषता है । मैं केवल आपके भजन-चिन्तन में ही लगा रहूँ। भक्तों पर भगवान की अलौकिक , विलक्षण कृपा की बात सुनकर अर्जुन की दृष्टि भगवान की कृपा की तरफ जाती है और उस कृपा से प्रभावित होकर वे आगे के चार श्लोकों में भगवान की स्तुति करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )