Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10

Contents

Previous         Menu        Next 

विभूतियोग-  दसवाँ अध्याय

 

19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन

 

 

Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य

अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः 10.33

 

 

अक्षराणाम्सभी अक्षरों में; कारःआरम्भिक अक्षर; अस्मिहूँ; द्वन्द्वःद्वन्द्व समास; सामासिकस्यसामासिक शब्दों में; तथा; अहम्मैं हूँ; एवकेवल ही; अक्षयःअनन्त; कालसमय; धातासृष्टाओं में; अहम्मैं; विश्वतः मुखःब्रह्मा।

 

 

मैं वर्णमाला के सभी अक्षरों में प्रथम अक्षरअकारहूँ और व्याकरण के समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ। अक्षयकाल ( शाश्वत काल ) अर्थात्‌ काल का भी महाकाल और सृष्टाओं में सबका धारणपोषण करने वाला सब ओर मुखवाला विश्वतोमुख – ‘ विराट्स्वरूप ‘ –धाता ( ब्रह्मा ) भी मैं ही हूँ॥10.33

 

 

(‘अक्षराणामकारोऽस्मि ‘ – वर्णमाला में सर्वप्रथम ‘अकार’ आता है। ‘स्वर ‘ और ‘व्यञ्जन’ – दोनों में अकार मुख्य है। अकार के बिना व्यञ्जनों का उच्चारण नहीं होता। इसलिये अकार को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। ‘द्वन्द्वः सामासिकस्य च’ – जिससे दो या दो से अधिक शब्दों को मिलाकर एक शब्द बनता है उसको ‘ समास ‘ कहते हैं। समास कई तरह के होते हैं। उनमें अव्ययीभाव , तत्पुरुष , बहुब्रीहि और द्वन्द्व – ये चार मुख्य हैं। दो शब्दों के समास में यदि पहला शब्द प्रधानता रखता है तो वह अव्ययीभाव समास होता है। यदि आगेका शब्द प्रधानता रखता है तो वह तत्पुरुष समास होता है। यदि दोनों शब्द अन्य के वाचक होते हैं तो वह बहुब्रीहि समास होता है। यदि दोनों शब्द प्रधानता रखते हैं तो वह द्वन्द्व समास होता है। द्वन्द्व समास में दोनों शब्दों का अर्थ मुख्य होने से भगवान ने इसको अपनी विभूति बताया है। ‘अहमेवाक्षयः कालः’ – जिस काल का कभी क्षय नहीं होता अर्थात् जो कालातीत है और अनादि – अनन्तरूप है , वह काल भगवान ही हैं। सर्ग और प्रलय की गणना तो सूर्य से होती है पर महाप्रलय में जब सूर्य भी लीन हो जाता है तब समय की गणना परमात्मा से ही होती है (टिप्पणी प0 563)। इसलिये परमात्मा अक्षय काल है। 30वें श्लोक के ‘कालः कलयतामहम्’ पदों में आये काल में और यहाँ आये अक्षय काल में क्या अन्तर है ? वहाँ का जो काल है वह एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता , बदलता रहता है। वह काल ज्योतिषशास्त्र का आधार है और उसी से संसारमात्र के समय की गणना होती है परन्तु यहाँ का जो अक्षय काल है वह परमात्मस्वरूप होने से कभी बदलता नहीं। वह अक्षय काल सबको खा जाता है और स्वयं ज्यों का त्यों ही रहता है अर्थात् इसमें कभी कोई विकार नहीं होता। उसी अक्षय काल को यहाँ भगवान ने अपनी विभूति बताया है। आगे 11वें अध्याय में भी भगवान ने ‘कालोऽस्मि ‘ (11। 32) पद से अक्षय काल को अपना स्वरूप बताया है। ‘धाताहं विश्वतोमुखः’ – सब ओर मुख वाले होने से भगवान की दृष्टि सभी प्राणियों पर रहती है। अतः सबका धारण-पोषण करने में भगवान बहुत सावधान रहते हैं। किस प्राणी को कौन सी वस्तु कब मिलनी चाहिये इसका भगवान खूब खयाल रखते हैं और समय पर उस वस्तु को पहुँचा देते हैं। इसलिये भगवान ने अपना विभूतिरूप से वर्णन किया है – स्वामी रामसुखदास जी )

 

       Next 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!