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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
08-11 फल और प्रभाव सहित भक्तियोग का वर्णन
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ৷৷10.8৷৷
अहम्–मैं; सर्वस्य–सभी का; प्रभवः–उत्पत्ति का कारण; मत्तः–मुझसे; सर्वम्–सब कुछ; प्रवर्तते–उत्पन्न होती हैं; इति–इस प्रकार; मत्वा–जानकर; भजन्ते–भक्ति करते हैं; माम्–मेरी; बुधाः–बुद्धिमान; भावसमन्विताः–श्रद्धा और भक्ति के साथ।
मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत् की उत्पत्ति का मूल कारण हूँ – इस समस्त सृष्टि का उद्गम हूँ और मुझसे ही सब जगत् चेष्टा करता है अर्थात मुझसे ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है और विकास को प्राप्त हो रहा है । सभी वस्तुएं मुझसे ही उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार समझकर और जान कर अर्थात मुझे मान कर मुझ एक ईश्वर में ही श्रद्धा – प्रेम रखते हुए श्रद्धा – भक्ति और दृढ़ विश्वास से युक्त बुद्धिमान् भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं और सब प्रकार से मेरी ही शरण होते हैं ॥10.8॥
[पूर्व श्लोक की बात ही इस श्लोक में कही गयी है। ‘अहं सर्वस्य प्रभवः में सर्वस्य’ भगवान की विभूति है अर्थात् देखने , सुनने , समझने में जो कुछ आ रहा है वह सब की सब भगवान की विभूति ही है। ‘मत्तः सर्वं प्रवर्तते में मत्तः’ भगवान का योग (प्रभाव ) है जिससे सभी विभूतियाँ प्रकट होती हैं। 7वें , 8वें और 9वें अध्याय में जो कुछ कहा गया है वह सब का सब इस श्लोक के पूर्वार्ध में आ गया है।] ‘अहं सर्वस्य प्रभवः’ – मानस , नादज , बिन्दुज , उद्भिज्ज , जरायुज , अण्डज , स्वेदज अर्थात् जड-चेतन , स्थावर-जङ्गम यावन्मात्र जितने प्राणी होते हैं उन सबकी उत्पत्ति के मूल में परमपिता परमेश्वर के रूप में मैं ही हूँ (टिप्पणी प0 543)। यहाँ ‘प्रभव’ का तात्पर्य है कि मैं सबका अभिन्न निमित्तोपादान कारण हूँ अर्थात् स्वयं मैं ही सृष्टिरूप से प्रकट हुआ हूँ। ‘मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ – संसार में उत्पत्ति , स्थिति , प्रलय , पालन , संरक्षण आदि जितनी भी चेष्टाएँ होती हैं जितने भी कार्य होते हैं वे सब मेरे से ही होते हैं। मूल में उनको सत्तास्फूर्ति आदि जो कुछ मिलता है वह सब मेरे से ही मिलता है। जैसे बिजली की शक्ति से सब कार्य होते हैं ऐसे ही संसार में जितनी क्रियाएँ होती हैं उन सबका मूल कारण मैं ही हूँ। ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ‘- कहने का तात्पर्य है कि साधक की दृष्टि प्राणिमात्र के भाव , आचरण , क्रिया आदि की तरफ न जाकर उन सबके मूल में स्थित भगवान की तरफ ही जानी चाहिये। कार्य , कारण , भाव , क्रिया , वस्तु , पदार्थ , व्यक्ति आदि के मूल में जो तत्त्व है उसकी तरफ ही भक्तों की दृष्टि रहनी चाहिये। 7वें अध्याय के 7वें तथा 12वें श्लोक में और 10वें अध्याय के 5वें और इस (8वें ) श्लोक में ‘मत्तः’ पद बार-बार कहने का तात्पर्य है कि ये भाव , क्रिया , व्यक्ति आदि सब भगवान से ही पैदा होते हैं , भगवान में ही स्थित रहते हैं और भगवान में ही लीन हो जाते हैं। अतः तत्त्व से सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है – इस बात को जान लें अथवा मान लें तो भगवान के साथ अविकम्प (कभी विचलित न किया जाने वाला) योग अर्थात् सम्बन्ध हो जायगा। यहाँ ‘सर्वस्य’ और ‘सर्वम्’ – दो बार ‘सर्व’ पद देने का तात्पर्य है कि भगवान के सिवाय इस सृष्टि का न कोई उत्पादक है और न कोई संचालक है। इस सृष्टि के उत्पादक और संचालक केवल भगवान ही हैं। ‘इति मत्वा भावसमन्विताः’ – भगवान से ही सब संसार की उत्पत्ति होती है और सारे संसार को सत्तास्फूर्ति भगवान से ही मिलती है अर्थात् स्थूल , सूक्ष्म और कारणरूप से सब कुछ भगवान ही हैं – ऐसा जो दृढ़ता से मान लेते हैं , वे ‘भगवान ही सर्वोपरि हैं ‘ , ‘भगवान के समान कोई हुआ नहीं , है नहीं , होगा नहीं तथा होना सम्भव भी नहीं ‘ – ऐसे सर्वोच्च भाव से युक्त हो जाते हैं। इस प्रकार जब उनकी महत्त्वबुद्धि केवल भगवान में हो जाती है तो फिर उनका आकर्षण , श्रद्धा , विश्वास , प्रेम आदि सब भगवान में ही हो जाते हैं। भगवान का ही आश्रय लेने से उनमें समता , निर्विकारता , निःशोकता , निश्चिन्तता , निर्भयता आदि स्वतः स्वाभाविक ही आ जाते हैं। कारण कि जहाँ देव (परमात्मा ) होते हैं वहाँ दैवी सम्पत्ति स्वाभाविक ही आ जाती है। ‘बुधाः’ – भगवान के सिवाय अन्य की सत्ता ही न मानना , भगवान को ही सबके मूल में मानना , भगवान का ही आश्रय लेकर उनमें ही श्रद्धा-प्रेम करना – यही उनकी बुद्धिमानी है। इसलिये उनको बुद्धिमान् कहा गया है। इसी बात को आगे 15वें अध्याय में कहा है कि जो मेरे को क्षर (संसारमात्र ) से अतीत और अक्षर (जीवात्मा ) से उत्तम जानता है वह सर्ववित् है और सर्वभाव से मेरा ही भजन करता है (15। 18 19)। ‘माम् भजन्ते’ – भगवान के नाम का जप-कीर्तन करना , भगवान के रूप का चिन्तन-ध्यान करना , भगवान की कथा सुनना , भगवत्सम्बन्धी ग्रन्थों (गीता , रामायण , भागवत आदि ) का पठन-पाठन करना – ये सब के सब भजन हैं परन्तु असली भजन तो वह है जिसमें हृदय भगवान की तरफ ही खिंच जाता है , केवल भगवान ही प्यारे लगते हैं , भगवान की विस्मृति चुभती है , बुरी लगती है। इस प्रकार भगवान में तल्लीन होना ही असली भजन है। विशेष बात- सबके मूल में परमात्मा है और परमात्मा से ही वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ , घटना आदि सबको सत्तास्फूर्ति मिलती है – ऐसा ज्ञान होना परमात्मप्राप्ति चाहने वाले सभी साधकों के लिये बहुत आवश्यक है। कारण कि जब सबके मूल में परमात्मा ही है तब साधक का लक्ष्य भी परमात्मा की तरफ ही होना चाहिये। उस परमात्मा की तरफ लक्ष्य कराने में ही सम्पूर्ण विभूतियों और योग के ज्ञान का तात्पर्य है। यही बात गीता में जगह-जगह बतायी गयी है जैसे – जिससे सम्पूर्ण प्राणियों की प्रवृत्ति होती है और जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है उस परमात्मा का अपने कर्तव्यकर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिये (18। 46) जो सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में विराजमान है और जो सब प्राणियों को प्रेरणा देता है उस परमात्मा की सर्वभाव से शरण जाना चाहिये (18। 61 62) इत्यादि। कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग – ये साधन तो अपनी-अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं पर उपर्युक्त ज्ञान सभी साधकों के लिये बहुत ही आवश्यक है। अब आगे के श्लोक में उन भक्तों का भजन किस रीति से होता है ? यह बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )