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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥10.28॥
आयुधानाम्–शास्त्रों में; अहम्–मैं हूँ; वज्रम्–वज्रः धेनूनाम्–गायों में; अस्मि–हूँ; काम–धुक्–कामधेनू गाय; प्रजनः–सन्तान, उत्पत्ति का कारण; च–तथा; अस्मि–हूँ; कन्दर्पः–कामदेव; सर्पाणाम्–सर्पो में; अस्मि–हूँ; वासुकि:-वासुकि।
मैं शस्त्रों में वज्र और धेनुओं ( गौओं ) में कामधेनु हूँ। शास्त्रोक्त रीति से सन्तान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ॥10.28॥
(‘आयुधानामहं वज्रम् ‘- जिनसे युद्ध किया जाता है उनको आयुध (अस्त्र-शस्त्र) कहते हैं। उन आयुधों में इन्द्र का वज्र मुख्य है। यह दधीचि ऋषि की हड्डियों से बना हुआ है और इसमें दधीचि ऋषि की तपस्या का तेज है। इसलिये भगवान ने वज्र को अपनी विभूति कहा है। ‘धेनूनामस्मि कामधुक्’ – नयी ब्यायी हुई गाय को धेनु कहते हैं। सभी धेनुओं में कामधेनु मुख्य है जो समुद्रमन्थन से प्रकट हुई थी। यह सम्पूर्ण देवताओं और मनुष्यों की कामनापूर्ति करने वाली है। इसलिये यह भगवान की विभूति है। ‘प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः’ – संसारमात्र की उत्पत्ति काम से ही होती है। धर्म के अनुकूल केवल सन्तान की उत्पत्ति के लिये सुखबुद्धि का त्याग करके जिस काम का उपयोग किया जाता है वह काम भगवान की विभूति है। सातवें अध्याय के 11वें श्लोक में भी भगवान ने काम को अपनी विभूति बताया है – ‘धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ‘अर्थात् सब प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम मैं हूँ। ‘सर्पाणामस्मि वासुकिः ‘ – वासुकि सम्पूर्ण सर्पों के अधिपति और भगवान के भक्त हैं। समुद्रमन्थन के समय इन्हीं की मन्थनडोरी बनायी गयी थी। इसलिये भगवान ने इनको अपनी विभूति बताया है। इन विभूतियों में जो विलक्षणता दिखायी देती है वह प्रतिक्षण परिवर्तनशील संसार की हो ही कैसी सकती है वह तो परमात्माकी ही है – स्वामी रामसुखदास जी )