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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
12-18 अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहनेके लिए प्रार्थना
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥10.17॥
कथम्–कैसे; विद्याम् अहम्–मैं जान सकूँ; योगिन्–योगमाया के स्वामी; त्वाम्–आपको; सदा–सदैव; परिचिन्तयन–चिन्तन करना; केषु–किस; च–भी; भावेषु–रूपों मे; चिन्त्य:असि–आपका चिन्तन कर; भगवन्–परम सत्ता; मया मेरे द्वारा।
हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूँ और हे भगवन्! आप किन–किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं? अर्थात मैं आपको ज्यादा अच्छे से कैसे जान सकता हूँ और कैसे आपका मधुर चिन्तन कर सकता हूँ। हे परम पुरुषोत्तम भगवान! ध्यानावस्था के दौरान मैं किन–किन रूपों और किन–किन भावों में आपका स्मरण और चिंतन करूँ ?॥10.17॥
‘कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ‘ – 7वें श्लोक में भगवान ने कहा कि जो मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानता है वह अविचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है। इसलिये अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि हरदम चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ ? ‘केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया’ – 8वें अध्याय के 14वें श्लोक में भगवान ने कहा कि जो अनन्यचित्त होकर नित्यनिरन्तर मेरा स्मरण करता है उस योगी को मैं सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ। फिर 9वें अध्याय के 22वें श्लोक में कहा कि जो अनन्य भक्त निरन्तर मेरा चिन्तन करते रहते हैं उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। इस प्रकार चिन्तन की महिमा सुनकर अर्जुन कहते हैं कि जिस चिन्तन से मैं आपको तत्त्व से जान जाऊँ वह चिन्तन मैं कहाँ-कहाँ करूँ , किस वस्तु , व्यक्ति , देश , काल , घटना , परिस्थिति आदि में मैं आपका चिन्तन करूँ [यहाँ चिन्तन करना साधन है और भगवान को तत्त्व से जानना साध्य है।] यहाँ अर्जुन ने तो पूछा है कि मैं कहाँ-कहाँ , किस-किस वस्तु , व्यक्ति , स्थान आदि में आपका चिन्तन करूँ पर भगवान ने आगे उत्तर यह दिया है कि जहाँ-जहाँ भी तू चिन्तन करता है वहाँ-वहाँ ही तू मेरे को समझ। तात्पर्य यह है कि मैं तो सब वस्तु , देश , काल आदि में परिपूर्ण हूँ। इसलिये किसी विशेषता , महत्ता , सुन्दरता आदि को लेकर जहाँ-जहाँ तेरा मन जाता है , वहाँ-वहाँ मेरा ही चिन्तन कर अर्थात् वहाँ उस विशेषता आदि को मेरी ही समझ। कारण कि संसार की विशेषता को मानने से संसार का चिन्तन होगा पर मेरी विशेषता को मानने से मेरा ही चिन्तन होगा। इस प्रकार संसार का चिन्तन मेरे चिन्तन में परिणत होना चाहिये।