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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
08-11 फल और प्रभाव सहित भक्तियोग का वर्णन
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥10.9॥
मत् चित्ता:-मुझमें मन को स्थिर करने वाले; मत् गतप्राणा:-जो अपना जीवन मुझे समर्पित करते हैं; बोधयन्तः–भगवान के दिव्य ज्ञान से प्रकाशित; परस्परम्–एक दूसरे से; कथयन्तः–वार्तालाप करते हुए; च–और; माम्–मेरे विषय में; नित्यम्–सदैव; तुष्यन्ति–संतुष्ट होते हैं; च–और; रमन्ति–आनन्द भोगते हैं; च–भी।
निरंतर मुझमें मन लगाने वाले अर्थात मुझमें ही अपना चित्त स्थिर करने वाले और मुझमें ही अपने प्राणों को अर्पण करने वाले अर्थात मुझ वासुदेव के लिए ही अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पण और समर्पित करने वाले भक्तजन आपस में मेरे गुण और प्रभाव को जानते हुए मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा , मेरे गुणों और प्रभाव का कथन करते हुए ही अर्थात एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हुए , मेरे विषय में वार्तालाप करते हुए और मेरी महिमा का गान करते हुए अत्यंत आनन्द और संतोष की अनुभूति करते हैं और निरंतर संतुष्ट रहते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं तथा मुझ से ही प्रेम करते हैं ॥10.9॥
[भगवान से ही सब उत्पन्न हुए हैं और भगवान से ही सबकी चेष्टा हो रही है अर्थात् सबके मूल में परमात्मा है – यह बात जिनको दृढ़ता से और निःसन्देहपूर्वक जँच गयी है उनके लिये कुछ भी करना , जानना और पाना बाकी नहीं रहता। बस उनका एक ही काम रहता है – सब प्रकार से भगवान में ही लगे रहना। यही बात इस श्लोक में बतायी गयी है।] ‘मच्चिताः’ – वे मेरे में चित्त वाले हैं। एक स्वयं का भगवान में लगना होता है और एक चित्त को भगवान में लगाना होता है। जहाँ ‘मैं भगवान का हूँ’ – ऐसे स्वयं भगवान में लग जाता है वहाँ चित्त , बुद्धि आदि सब स्वतः भगवान में लग जाते हैं। कारण कि कर्ता (स्वयं ) के लगने पर करण (मन, बुद्धि आदि ) अलग थोड़े ही रहेंगे वे भी लग जायँगे। करणों के लगने पर तो कर्ता अलग रह सकता है पर कर्ता के लगने पर करण अलग नहीं रह सकते। जहाँ कर्ता रहेगा वहीं करण भी रहेंगे। कारण कि करण कर्ता के ही अधीन होते हैं। कर्ता स्वयं जहाँ लगता है करण भी वहीं लगते हैं। जैसे कोई मनुष्य परमात्मप्राप्ति के लिये सच्चे हृदय से साधक बन जाता है तो साधन में उसका मन स्वतः लगता है। उसका मन साधन के सिवाय अन्य किसी कार्य में नहीं लगता और जिस कार्य में लगता है वह कार्य भगवान का ही होता है। कारण कि स्वयं कर्ता के विपरीत मन-बुद्धि आदि नहीं चलते परन्तु जहाँ स्वयं भगवान में नहीं लगता बल्कि मैं तो संसारी हूँ , मैं तो गृहस्थ हूँ – इस प्रकार स्वयं को संसार में लगाकर चित्त को भगवान में लगाना चाहता है , उसका चित्त भगवान में निरन्तर नहीं लगता। तात्पर्य है कि स्वयं तो संसारी बना रहे और चित्त को भगवान में लगाना चाहे तो भगवान में चित्त लगना असम्भव सा है। दूसरी बात चित्त वहीं लगता है जहाँ प्रियता होती है। प्रियता वहीं होती है जहाँ अपनापन होता है , आत्मीयता होती है । अपनापन होता है भगवान के साथ स्वयं का सम्बन्ध जोड़ने से। मैं केवल भगवान का हूँ और केवल भगवान ही मेरे हैं , शरीरसंसार मेरा नहीं है। मेरे पर प्रभु का पूरा अधिकार है इसलिये वे मेरे प्रति चाहे जैसा बर्ताव या विधान कर सकते हैं परन्तु मेरा प्रभु पर कोई अधिकार नहीं है अर्थात् ‘वे मेरे हैं तो मैं जैसा चाहूँ वे वैसा ही करें’ – ऐसा कोई अधिकार नहीं है – इस प्रकार जो स्वयं को भगवान का मान लेता है , अपने आप को भगवान के अर्पित कर देता है , उसका चित्त स्वतः भगवान में लग जाता है। ऐसे भक्तों को ही यहाँ ‘मच्चित्ताः’ कहा गया है। यहाँ ‘मच्चित्ताः’ पद में चित्त के अन्तर्गत ही मन है अर्थात् मनोवृत्ति अलग नहीं है। गीता में चित्त और मन को एक भी कहा है और अलग-अलग भी जैसे ‘भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च’ (7। 4) – यहाँ मन के अन्तर्गत ही चित्त है और ‘मनः संयम्य मच्चितः’ (6। 14) – यहाँ मन और चित्त अलग-अलग हैं परन्तु इस श्लोक में आये ‘मच्चित्ताः’ पद में मन और चित्त एक ही हैं दो नहीं। ‘मद्गतप्राणाः’ – उनके प्राण मेरे ही अर्पण हो गये हैं। प्राणों में दो बाते हैं – जीना और चेष्टा। उन भक्तों का जीना भी भगवान के ही लिये है और शरीर की सम्पूर्ण चेष्टाएँ (क्रियाएँ ) भी भगवान के लिये ही हैं। शरीर की जितनी क्रियाएँ होती हैं उनमें प्राणों की ही मुख्यता होती है। अतः उन भक्तों की यज्ञ , अनुष्ठान आदि शास्त्रीय भजन-ध्यान , कथा-कीर्तन आदि , भगवत्सम्बन्धी खाना-पीना आदि , शारीरिक खेती और व्यापार आदि जीविकासम्बन्धी सेवा आदि , सामाजिक आदि जितनी क्रियाएँ होती हैं वे सब भगवान के लिये ही होती हैं। उनकी क्रियाओं में क्रियाभेद तो होता है पर उद्देश्यभेद नहीं होता। उनकी मात्र क्रियाएँ एक भगवान के उद्देश्य से ही होती हैं। इसलिये वे भगवद्गतप्राण होते हैं। जैसे गोपिकाओं ने गोपी गीत में भगवान से कहा है कि हमने अपने प्राणों को आपमें अर्पण कर दिया है — ‘त्वयि धृतासवः’ (श्रीमद्भा0 10। 31। 1) ऐसे ही भक्तों के प्राण केवल भगवान में रहते हैं। उनका जितना भगवान से अपनापन है उतना अपने प्राणों से नहीं। हरेक प्राणी में किसी भी अवस्था में मेरे प्राण न छूटें इस तरह जीने की इच्छा रहती है। यह प्राणों का मोह है , स्नेह है परन्तु भगवान के भक्तों का प्राणों में मोह नहीं रहता। उनमें हम जीते रहें यह इच्छा नहीं होती और मरने का भय भी नहीं होता। उनको न जीने से मतलब रहता है और न मरने से। उनको तो केवल भगवान से मतलब रहता है। कारण कि वे इस बात को अच्छी तरह से जान जाते हैं कि मरने से तो प्राणों का वियोग होता है , भगवान से तो कभी वियोग होता ही नहीं। प्राणों के साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है पर भगवान के साथ हमारा स्वतःसिद्ध घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्राण प्रकृति के कार्य हैं और हम स्वयं भगवान के अंश हैं। ऐसे ‘मद्गतप्राणाः’ होने के लिये साधक को सबसे पहले यह उद्देश्य बनाना चाहिये कि हमें तो भगवत्प्राप्ति ही करनी है। सांसारिक चीजें प्राप्त हों या न हों हम स्वस्थ रहें या बीमार , हमारा आदर हो या निरादर , हमें सुख मिले या दुःख – इनसे हमारा कोई मतलब नहीं है। हमारा मतलब तो केवल भगवान से है। ऐसा दृढ़ उद्देश्य बनने पर साधक भगवद्गतप्राण हो जायगा। ‘बोधयन्तः परस्परम्’ – उन भक्तों को भगवद्भाव वाले , भगवद् रूचि वाले मिल जाते हैं तो उनके बीच भगवान की बात छिड़ जाती है। फिर वे आपस में एक-दूसरे को भगवान के तत्त्व , रहस्य , गुण , प्रभाव आदि जनाते हैं तो एक विलक्षण सत्सङ्ग होता है (टिप्पणी प0 546.1)। जब वे आपस में भावपूर्वक बातें करते हैं तब उनके भीतर भगवत्सम्बन्धी विलक्षण-विलक्षण बातें स्वतः आने लगती हैं। जैसे दीपक के नीचे अँधेरा रहता है पर दो दीपक एक-दूसरे के सामने रख दें तो दोनों दीपकों के नीचे का अँधेरा दूर हो जाता है। ऐसे ही जब दो भगवद्भक्त एक साथ मिलते हैं और आपस में भगवत्सम्बन्धी बातें चल पड़ती हैं तब किसी के मन में किसी तरह का भगवत्सम्बन्धी विलक्षण भाव पैदा होता है तो वह उसे प्रकट कर देता है तथा दूसरे के मन में और तरह का भाव पैदा होता है तो वह भी उसे प्रकट कर देता है। इस प्रकार आदान-प्रदान होने से उनमें नये-नये भाव प्रकट होते रहते हैं परन्तु अकेले में भगवान का चिन्तन करने से उतने भाव प्रकट नहीं होते। अगर भाव प्रकट हो भी जाएँ तो अकेले अपने पास ही रहते हैं , उनका आदान-प्रदान नहीं होता। ‘कथयन्तश्च माम्’ – उनको भगवान की कथा-लीला सुनने वाला कोई भगवद्भक्त मिल जाता है तो वे भगवान की कथा-लीला कहना शुरू कर देते हैं। जैसे सनकादि चारों भगवान की कथा कहते हैं और सुनते हैं। उनमें कोई एक वक्ता बन जाता है और तीन श्रोता बन जाते हैं। ऐसे ही भगवान के प्रेमी भक्तों को कोई सुनने वाला मिल जाता है तो वे उसको भगवान की कथा , गुण , प्रभाव , रहस्य आदि सुनाते हैं और कोई सुनाने वाला मिल जाता है तो स्वयं सुनने लग जाते हैं परन्तु उनमें सुनाते समय वक्ता बनने का अभिमान नहीं होता और सुनते समय श्रोता बनने की लज्जा नहीं होती। ‘नित्यं तुष्यन्ति च’ – इस तरह भगवान की कथा , लीला , गुण , प्रभाव , रहस्य आदि को आपस में एक दूसरे को जनाते हुए और उनका ही कथन तथा चिन्तन करते हुए वे भक्त नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं। तात्पर्य है कि उनकी सन्तुष्टि का कारण भगवान के सिवाय दूसरा कोई नहीं रहता केवल भगवान ही रहते हैं। ‘रमन्ति च’ – वे भगवान में ही रमण अर्थात् प्रेम करते हैं। इस प्रेम में उनमें और भगवान में भेद नहीं रहता – ‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’ (नारदभक्तिसूत्र 41)। कभी भक्त भगवान का भक्त हो जाता है तो कभी भगवान् अपने भक्त के भक्त बन जाते हैं (टिप्पणी प0 546.2)। इस तरह भगवान और भक्त में परस्पर प्रेम की लीला अनन्त-काल तक चलती ही रहती है और प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है। इस वर्णन से साधक को इस बात की तरफ ध्यान देना चाहिये कि उसकी हर एक क्रिया , भाव आदि का प्रवाह केवल भगवान की तरफ ही हो। पूर्वश्लोक में भक्तों के द्वारा होने वाले भजन का प्रकार बताकर अब आगे के दो श्लोकों में भगवान उन पर विशेष कृपा करने की बात बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )