Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10

Contents

Previous         Menu        Next 

विभूतियोग-  दसवाँ अध्याय

 

19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन

 

 

Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्‌

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा 10.34

 

 

मृत्युःमृत्यु; सर्वहर:-सर्वभक्षी; भी; अहम्मैं हूँ; उद्धवःमूल; भी; भविष्यताम्भावी अस्तित्वों में; कीर्तिःयश; श्री:-समृद्वि या सुन्दरता; वाक्वाणी; और; नारीणाम्स्त्रियों जैसे गुण; स्मृतिःस्मृति, स्मरणशक्ति; मेधाबुद्धि; धृतिःसाहस; क्षमाक्षमा।

 

 

मैं सबका नाश करने वालीसबका हरण करने वाली सर्वभक्षक मृत्यु और भविष्य में उत्पन्न होने वाले भावी अस्तित्वों की उत्पत्ति का मूल कारण हूँ तथा स्त्रियों में कीर्ति , श्री ( समृद्धि ) , वाणी , स्मृति, बुद्धि , साहस और क्षमा हूँ॥10.34

(कीर्ति आदि ये सात देवताओं की स्त्रियाँ और स्त्रीवाचक नाम वाले गुण भी प्रसिद्ध हैं, इसलिए दोनों प्रकार से ही भगवान की विभूतियाँ हैं)

 

(‘मृत्युः सर्वहरश्चाहम्’ – मृत्यु में हरण करने की ऐसी विलक्षण सामर्थ्य है कि मृत्यु के बाद यहाँ की स्मृति तक नहीं रहती , सब कुछ अपहृत हो जाता है। वास्तव में यह सामर्थ्य मृत्यु की नहीं है बल्कि परमात्मा की है। अगर सम्पूर्ण का हरण करने की , विस्मृत करने की भगवत्प्रदत्त सामर्थ्य मृत्यु में न होती तो अपनेपन के सम्बन्ध को लेकर जैसी चिन्ता इस जन्म में मनुष्य को होती है , वैसी ही चिन्ता पिछले जन्म के सम्बन्ध को लेकर भी होती। मनुष्य न जाने कितने जन्म ले चुका है। अगर उन जन्मों की याद रहती तो मनुष्य की चिन्ताओं का , उसके मोह का कभी अन्त आता ही नहीं परन्तु मृत्यु के द्वारा विस्मृति होने से पूर्वजन्मों के कुटुम्ब , सम्पत्ति आदि की चिन्ता नहीं होती। इस तरह मृत्यु में जो चिन्ता , मोह मिटाने की सामर्थ्य है वह सब भगवान की है। ‘उद्भवश्च भविष्यताम्’ – जैसे पूर्वश्लोक में भगवान ने बताया कि सबका धारण-पोषण करने वाला मैं ही हूँ , वैसे ही यहाँ बताते हैं कि सब उत्पन्न होने वालों की उत्पत्ति का हेतु भी मैं ही हूँ। तात्पर्य है कि संसार की उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय करने वाला मैं ही हूँ। ‘कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ‘ – कीर्ति , श्री , वाक् , स्मृति , मेधा , धृति और क्षमा – ये सातों संसार भर की स्त्रियों में श्रेष्ठ मानी गयी हैं। इनमें से कीर्ति , स्मृति , मेधा , धृति और क्षमा – ये पाँच प्रजापति दक्ष की कन्याएँ हैं । ‘श्री’ महर्षि भृगु की कन्या है और ‘वाक्’ ब्रह्माजी की कन्या है। कीर्ति , श्री , वाक् , स्मृति , मेधा , धृति और क्षमा – ये सातों स्त्रीवाचक नाम वाले गुण भी संसार में प्रसिद्ध हैं। सद्गुणों को लेकर संसार में जो प्रसिद्धि है , प्रतिष्ठा है उसे कीर्ति कहते हैं। स्थावर और जङ्गम – यह दो प्रकार का ऐश्वर्य होता है। जमीन , मकान , धन , सम्पत्ति आदि स्थावर ऐश्वर्य है और गाय , भैंस , घोड़ा , ऊँट , हाथी आदि जङ्गम ऐश्वर्य हैं। इन दोनों ऐश्वर्यों को ‘श्री ‘ कहते हैं। जिस वाणी को धारण करने से संसार में यश-प्रतिष्ठा होती है और जिससे मनुष्य पण्डित , विद्वान् कहलाता है उसे ‘वाक्’ कहते हैं। पुरानी सुनी-समझी बात की फिर याद आने का नाम ‘स्मृति’ है।बुद्धि की जो स्थायी रूप से धारण करने की शक्ति है अर्थात् जिस शक्ति से विद्या ठीक तरह से याद रहती है उस शक्ति का नाम ‘मेधा ‘ है। मनुष्य को अपने सिद्धान्त , मान्यता आदि पर डटे रखने तथा उनसे विचलित न होने देने की शक्ति का नाम ‘धृति’ है। दूसरा कोई बिना कारण अपराध कर दे तो अपने में दण्ड देने की शक्ति होने पर भी उसे दण्ड न देना और उसे लोक-परलोक में कहीं भी उस अपराध का दण्ड न मिले – इस तरह का भाव रखते हुए उसे माफ कर देने का नाम ‘क्षमा ‘ है। कीर्ति , श्री और वाक् – ये तीन प्राणियों के बाहर प्रकट होने वाली विशेषताएँ हैं तथा स्मृति , मेधा , धृति और क्षमा – ये चार प्राणियों के भीतर प्रकट होने वाली विशेषताएँ हैं। इन सातों विशेषताओं को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। यहाँ जो विशेष गुणों को विभूतिरूप से कहा है उसका तात्पर्य केवल भगवान की तरफ लक्ष्य कराने में है। किसी व्यक्ति में ये गुण दिखायी दें तो उस व्यक्ति की विशेषता न मानकर भगवान की ही विशेषता माननी चाहिये और भगवान की ही याद आनी चाहिये। यदि ये गुण अपने में दिखायी दें तो इनको भगवान के ही मानने चाहिये , अपने नहीं। कारण कि यह दैवी (भगवान की ) सम्पत्ति है जो भगवान से ही प्रकट हुई है। इन गुणों को अपना मान लेने से अभिमान पैदा होता है , जिससे पतन हो जाता है क्योंकि अभिमान सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्ति का जनक है। साधकों को जिस किसी में जो कुछ विशेषता , सामर्थ्य दिखे , उसे उस वस्तु-व्यक्ति का न मानकर भगवान की ही मानना चाहिये। जैसे लोमश ऋषि के शाप से काकभुशुण्डि ब्राह्मण से चाण्डाल पक्षी बन गये पर उनको न भय हुआ , न किसी प्रकार की दीनता आयी और न कोई विचार ही हुआ बल्कि उनको प्रसन्नता ही हुई। कारण कि उन्होंने इसमें ऋषि का दोष न मानकर भगवान की प्रेरणा ही मानी – ‘सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन।।’ (मानस 7। 113। 1)। ऐसे ही मनुष्य सब वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि के मूल में भगवान को देखने लगे तो हर समय आनन्द ही आनन्द रहेगा – स्वामी रामसुखदास जी )

 

       Next 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!