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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
12-18 अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहनेके लिए प्रार्थना
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥10.15॥
स्वयम्–स्वयं; एव–वास्तव में; आत्मना–अपने आप; आत्मानम्–अपने को; वेत्थ–जानते हो; त्वम्–आप; पुरूष–उत्तम–परम व्यक्तित्व; भूत–भावन–सभी जीवों के उद्गम; भूत ईश–सभी जीवों के स्वामी; देव–देव–सभी देवताओं के स्वामी; जगत्–पते–ब्रह्माण्ड के स्वामी।
हे भूतभावन ( भूतों को उत्पन्न करने वाले/ सभी जीवों के उदगम् ) ! हे भूतेश ( भूतों के ईश्वर/ सभी जीवों के स्वामी ) ! हे देवदेव ( देवों के देव) ! हे जगत्पते ( जगत् के स्वामी / ब्रह्माण्ड नायक ) ! हे पुरुषोत्तम! वास्तव में आप स्वयं ही अपने आप से अपने आप को जानते हैं अर्थात आप अकेले ही अपनी अचिंतनीय शक्ति से स्वयं को जानने वाले हो।॥10.15॥
(‘भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते पुरुषोत्तम’ – सम्पूर्ण प्राणियों को संकल्पमात्र से उत्पन्न करने वाले होने से आप भूतभावन हैं सम्पूर्ण प्राणियों के और देवताओं के मालिक होने से आप भूतेश और देवदेव हैं , जड-चेतन , स्थावर-जङ्गममात्र जगत का पालन-पोषण करने वाले होने से आप जगत्पति हैं और सम्पूर्ण पुरुषों में उत्तम होने से आप लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से कहे गये हैं (गीता 15। 18) (टिप्पणी प0 550)। इस श्लोक में पाँच सम्बोधन आये हैं। इतने सम्बोधन गीता भर में दूसरे किसी भी श्लोक में नहीं आये। कारण है कि भगवान की विभूतियों की और भक्तों पर कृपा करने की बात सुनकर अर्जुन में भगवान के प्रति विशेष भाव पैदा होते हैं और उन भावों में विभोर होकर वे भगवान के लिये एक साथ पाँच सम्बोधनों का प्रयोग करते हैं (टिप्पणी प0 551)। ‘स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वम्’ – भगवान अपने-आपको अपने-आप से ही जानते हैं। अपने आप को जानने में उन्हें किसी प्राकृत साधन की आवश्यकता नहीं होती। अपने आपको जानने में उनकी अपनी कोई वृत्ति पैदा नहीं होती , कोई जिज्ञासा भी नहीं होती , किसी करण (अन्तःकरण और बहिःकरण) की आवश्यकता भी नहीं होती। उनमें शरीर शरीरी का भाव भी नहीं है। वे तो स्वतः स्वाभाविक अपने आप से ही अपने आप को जानते हैं। उनका यह ज्ञान करण निरपेक्ष है , करण सापेक्ष नहीं। इस श्लोक का भाव यह है कि जैसे भगवान अपने आपको अपने आप से ही जानते हैं । ऐसे ही भगवान के अंश जीव को भी अपने आप से ही अपने आप को अर्थात् अपने स्वरूप को जानना चाहिये। अपने आपको अपने स्वरूप का जो ज्ञान होता है , वह सर्वथा करणनिरपेक्ष होता है। इसलिये इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि से अपने स्वरूप को नहीं जान सकते। भगवान का अंश होने से भगवान की तरह जीव का अपना ज्ञान भी करणनिरपेक्ष है। विभूतियों का ज्ञान भगवान में दृढ़ कराने वाला है (गीता 10। 7)। अतः अब आगे के श्लोकों में अर्जुन भगवान से विभूतियों को विस्तार से कहने के लिये प्रार्थना करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी