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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥10.19॥
श्रीभगवान् उवाच–आनन्दमयी भगवान ने कहा; हन्त–हाँ; ते–तुमसे; कथयिष्यामि–मैं वर्णन करूँगा; दिव्याः–दिव्य; हि–निश्चय ही; आत्म–विभूतयः–मेरे दिव्य ऐश्वर्यः प्राधान्यतः–प्रमुख रूप से; कुरुश्रेष्ठ–कुरुश्रेष्ठ; न–नहीं; अस्तिहै; अनतः–सीमा; विस्तरस्य–अनंत महिमा; मे–मेरी।
श्री भगवान बोले– हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियाँ हैं, उनको तेरे लिए प्रधानता से ( संक्षेप में ) कहूँगा अर्थात अब मैं तुम्हें अपनी दिव्य महिमा का प्रमुखता से वर्णन करूँगा ; क्योंकि मेरे विस्तार का और इस वर्णन का कहीं भी कोई अंत नहीं है॥10.19॥
‘हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ‘ – योग और विभूति कहने के लिये अर्जुन की जो प्रार्थना है उसको ‘हन्त’ अव्यय से स्वीकार करते हुए भगवान कहते हैं कि मैं अपनी दिव्य , अलौकिक , विलक्षण विभूतियों को तेरे लिये कहूँगा (योग की बात भगवान ने आगे 41वें श्लोक में कही है )। ‘दिव्याः’ कहने का तात्पर्य है कि जिस किसी वस्तु , व्यक्ति , घटना आदि में जो कुछ भी विशेषता दिखती है वह वस्तुतः भगवान की ही है। इसलिये उसको भगवान की ही देखना दिव्यता है और वस्तु , व्यक्ति आदि की देखना अदिव्यता अर्थात् लौकिकता है। ‘प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ‘ – जब अर्जुन ने कहा कि भगवन आप अपनी विभूतियों को विस्तार से पूरी की पूरी कह दें तब भगवान कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियों को संक्षेप से कहूँगा क्योंकि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है पर आगे 11वें अध्याय में जब अर्जुन बड़े संकोचसे कहते हैं कि मैं आपका विश्वरूप देखना चाहता हूँ अगर मेरे द्वारा वह रूप देखा जाना शक्य है तो दिखा दीजिये तब भगवान कहते हैं – ‘पश्य मे पार्थ रूपाणि’ (11। 5) अर्थात् तू मेरे रूपों को देख ले। रूपों में कितने रूप क्या दो-चार नहीं-नहीं सैकड़ों – हजारों रूपों को देख इस प्रकार यहाँ अर्जुन की विस्तार से विभूतियाँ कहने की प्रार्थना सुनकर भगवान संक्षेप से विभूतियाँ सुनने के लिये कहते हैं और वहाँ अर्जुन की एक रूप दिखाने की प्रार्थना सुनकर भगवान सैकड़ों-हजारों रूप देखने के लिये कहते हैं । यह एक बड़े आश्चर्य की बात है कि सुनने में तो आदमी बहुत सुन सकता है पर उतना नेत्रों से देख नहीं सकता क्योंकि देखने की शक्ति कानों की अपेक्षा सीमित होती है (टिप्पणी प0 553)। फिर भी जब अर्जुन ने सम्पूर्ण विभूतियों को सुनने में अपनी सामर्थ्य बतायी तो भगवान ने संक्षेप से सुनने के लिये कहा और जब अर्जुन ने एक रूप को देखने में नम्रतापूर्वक अपनी असमर्थता प्रकट की तो भगवान ने अनेक रूप देखने के लिये कहा । इसका कारण यह है कि गीता में अर्जुन का भगवद् विषयक ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। इस 10वें अध्याय में जब भगवान ने यह कहा कि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है तब अर्जुन की दृष्टि भगवान की अनन्तता की तरफ चली गयी। उन्होंने समझा कि भगवान के विषय में तो मैं कुछ भी नहीं जानता क्योंकि भगवान् अनन्त हैं , असीम हैं , अपार हैं परन्तु अर्जुन ने भूल से कह दिया कि आप अपनी सब की सब विभूतियाँ कह दीजिये। इसलिये अर्जुन आगे चलकर सावधान हो जाते हैं और नम्रतापूर्वक एक रूप को दिखाने के लिये ही भगवान से प्रार्थना करते हैं। नेत्रों की शक्ति सीमित होते हुए भी भगवान दिव्य चक्षु प्रदान करके अर्थात् चर्म-चक्षुओं में विशेष शक्ति प्रदान करके अपने अनेक रूपों को देखने की आज्ञा देते हैं। दूसरी बात – वक्ता की व्यक्तिगत बात पूछी जाय और अपनी अज्ञता तथा अयोग्यतापूर्वक अपने जाननेके लिये प्रार्थना की जाय – इन दोनों में फरक होता है। यहाँ अर्जुन ने विस्तारपूर्वक विभूतियाँ कहने के लिये कहकर भगवान की थाह लेनी चाही तो भगवान ने कह दिया कि मैं तो संक्षेप से कहूँगा क्योंकि मेरी विभूतियों की थाह नहीं है। 11वें अध्याय में अर्जुन ने अपनी अज्ञता और अयोग्यता प्रकट करते हुए भगवान से अपना अव्यय रूप दिखाने की प्रार्थना की तो भगवान ने अपने अनन्तरूप देखने के लिये आज्ञा दी और उनको देखने की सामर्थ्य (दिव्य दृष्टि ) भी दी इसलिये साधक को किञ्चिन्मात्र भी अपना आग्रह , अहंकार न रखकर और अपनी सामर्थ्य , बुद्धि न लगाकर केवल भगवान पर ही सर्वथा निर्भर हो जाना चाहिये क्योंकि भगवान्की निर्भरता से जो चीज मिलती है वह अपार मिलती है। विभूतियाँ और योग – इन दोनों में से पहले भगवान 20वें श्लोक से 39वें श्लोक तक अपनी बयासी ( 82 ) विभूतियों का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )