Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10

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विभूतियोग-  दसवाँ अध्याय

 

19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन

 

 

Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया 10.40

 

 

तो; अन्तःअन्त; अस्तिहै; मममेरी; दिव्यानाम्दिव्य; विभूतीनामअभिव्यक्तियाँ, वैभव , ऐश्वर्य  ; परन्तपशत्रु विजेता अर्जुन; एषःयह सब; तुलेकिन; उद्देशतःकेवल एक भाग; प्रोक्तःघोषित करना; विभूते:-वैभवों का; विस्तरःविशद वर्णन; मयामेरे द्वारा।

 

 

हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिए संक्षेप से कहा है अर्थात यह मेरी अनन्त महिमा का संकेत मात्र है।॥10.40

 

 

(‘मम दिव्यानां (टिप्पणी प0 568.2) विभूतीनाम् ‘ – दिव्य शब्द अलौकिकता , विलक्षणता का द्योतक है। साधक का मन जहाँ चला जाय वहीं भगवान का चिन्तन करने से यह दिव्यता वहीं प्रकट हो जायगी क्योंकि भगवान के समान दिव्य कोई है ही नहीं। देवता जो दिव्य कहे जाते हैं वे भी नित्य ही भगवान के दर्शन की इच्छा रखते हैं – ‘नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः’ (गीता 11। 52)। इससे यही सिद्ध होता है कि दिव्यातिदिव्य तो एक भगवान ही हैं। इसलिये भगवान की जितनी भी विभूतियाँ हैं , तत्त्व से वे सभी दिव्य हैं परन्तु साधक के सामने उन विभूतियों की दिव्यता तभी प्रकट होती है जब उसका उद्देश्य केवल एक भगवत्प्राप्ति का ही होता है और भगवत्तत्त्व जानने के लिये राग-द्वेष से रहित होकर उन विभूतियों में केवल भगवान का ही चिन्तन करता है। ‘नान्तोऽस्ति’ – भगवान की दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है। कारण कि भगवान अनन्त हैं तो उनकी विभूतियाँ , गुण , लीलाएँ आदि भी अनन्त हैं – ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ (मानस 1। 140। 5)। इसलिये भगवान ने विभूतियों के उपक्रम में और उपसंहार में – दोनों ही जगह कहा है कि मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है। श्रीमद्भागवत में भगवान ने अपनी विभूतियों के विषय में कहा है कि मेरे द्वारा परमाणुओं की संख्या समय से गिनी जा सकती है पर करोड़ों ब्रह्माण्डों को रचने वाली मेरी विभूतियों का अन्त नहीं पाया जा सकता (टिप्पणी प0 569)। भगवान् अनन्त , असीम और अगाध हैं। संख्या की दृष्टि से भगवान अनन्त हैं अर्थात् उनकी गणना परार्द्ध तक नहीं हो सकती। सीमा की दृष्टि से भगवान असीम हैं। सीमा दो तरह की होती है – कालकृत और देशकृत। अमुक समय पैदा हुआ और अमुक समय तक रहेगा – यह कालकृत सीमा हुई और यहाँ से लेकर वहाँ तक – यह देशकृत सीमा हुई। भगवान ऐसे सीमा में बँधे हुए नहीं हैं। तल की दृष्टि से भगवान अगाध हैं। अगाध शब्द में गाध नाम तल का है जैसे जल में नीचे का तल होता है। अगाध का अर्थ हुआ – जिसका तल है ही नहीं – ऐसा अथाह गहरा। ‘एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया’ – 18वें श्लोक में अर्जुन ने कहा कि आप अपनी दिव्य विभूतियों को विस्तार से कहिये तो उत्तर में भगवान ने कहा कि मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है। ऐसा कहकर भी भगवान ने अर्जुन की जिज्ञासा के कारण कृपापूर्वक अपनी विभूतियों का विस्तार से वर्णन किया परन्तु यह विस्तार केवल लौकिक दृष्टि से ही है। इसलिये भगवान यहाँ कह रहे हैं कि मैंने यहाँ जो विभूतियों का विस्तार किया है वह विस्तार केवल तेरी दृष्टि से ही है। मेरी दृष्टि से तो यह विस्तार भी वास्तव में बहुत ही संक्षेप से (नाममात्र का) है क्योंकि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है। [इस अध्याय में बतायी गयी सम्पूर्ण विभूतियाँ सबके काम नहीं आतीं बल्कि ऐसी अनेक दूसरी विभूतियाँ भी काम में आती हैं जिनका यहाँ वर्णन नहीं हुआ है। अतः साधक को चाहिये कि जहाँ-जहाँ किसी विशेषता को लेकर मन खिंचता है वहाँ-वहाँ उस विशेषता को भगवान की ही माने और भगवान का ही चिन्तन करे चाहे वह विभूति यहाँ भगवान द्वारा कही गयी हो अथवा न कही गयी हो।] 18वें श्लोक में अर्जुन ने भगवान से विभूति और योग बताने की प्रार्थना की। इस पर भगवान ने पहले अपनी विभूतियों को बताया और अब आगे के श्लोक में योग बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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