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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥10.36॥
द्यूतम्–जुआ; छलयताम् छलियों में; अस्मि–हूँ; तेजः–दीप्ति; तेजस्विनाम् तेजस्वियों में; अहम्–मैं हूँ; जयः–विजय; अस्मि–हूँ; व्यवसाय:-दृढ़ संकल्प; अस्मि–हूँ; सत्त्वम्–सात्विक भाव; वताम्–गुणियों में; अहम्–मैं हूँ।
मैं छल करने वालों अर्थात समस्त छलियों में जुआ ( द्यूत ) हूँ और तेजस्वियों में तेज अर्थात प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ। मैं जीतने वालों की अर्थात विजेताओं की विजय हूँ, निश्चय करने वालों का निश्चय अर्थात संकल्पकर्ताओं का संकल्प और सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव अर्थात धर्मात्माओं का धर्म हूँ॥10.36॥
(‘द्यूतं छलयतामस्मि ‘ – छल करके दूसरों के राज्य , वैभव , धन , सम्पत्ति आदि का (सर्वस्व का) अपहरण करने की विशेष सामर्थ्य रखने वाली जो विद्या है उसको जुआ कहते हैं। इस जुए को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। शङ्का – यहाँ भगवान ने छल करने वालों में जूए को अपनी विभूति बताया है तो फिर इसके खेलने में क्या दोष है ? अगर दोष नहीं है तो फिर शास्त्रों ने इसका निषेध क्यों किया है ? समाधान – ऐसा करो और ऐसा मत करो – यह शास्त्रों का विधि-निषेध कहलाता है। ऐसे विधि-निषेध का वर्णन यहाँ नहीं है। यहाँ तो विभूतियों का वर्णन है। मैं आपका चिन्तन कहाँ-कहाँ करूँ ? अर्जुन के इस प्रश्न के अनुसार भगवान ने विभूतियों के रूप में अपने चिन्तन की बात ही बतायी है अर्थात् भगवान का चिन्तन सुगमता से हो जाय इसका उपाय विभूतियों के रूप में बताया है। अतः जिस समुदाय में मनुष्य रहता है उस समुदाय में जहाँ दृष्टि पड़े वहाँ संसार को न देखकर भगवान को ही देखे क्योंकि भगवान कहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत मेरे से व्याप्त है अर्थात् इस जगत में मैं ही व्याप्त हूँ , परिपूर्ण हूँ (गीता 9। 4)। जैसे किसी साधक का पहले जुआ खेलने का व्यसन रहा हो और अब वह भगवान के भजन में लगा है। उसको कभी जुआ याद आ जाय तो उस जुए का चिन्तन छोड़ने के लिये वह उसमें भगवान का चिन्तन करे कि इस जूए के खेल में हार-जीत की विशेषता है वह भगवान की ही है। इस प्रकार जुए में भगवान को देखने से जुए का चिन्तन तो छूट जायगा और भगवान का चिन्तन होने लगेगा। ऐसे ही किसी दूसरे को जुआ खेलते देखा और उसमें हार- जीत को देखा तो हराने और जिताने की शक्ति को जुए की न मानकर भगवान की ही माने। कारण कि खेल तो समाप्त हो रहा है और समाप्त हो जायगा पर परमात्मा उसमें निरन्तर रहते हैं और रहेंगे। इस प्रकार जुआ आदि को विभूति कहने का तात्पर्य भगवान के चिन्तन में है (टिप्पणी प0 565.1)। जीव स्वयं साक्षात् परमात्मा का अंश है पर इसने भूल से असत शरीरसंसार के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। अगर यह संसार में दिखने वाली महत्ता , विशेषता , शोभा आदि को परमात्मा की ही मानकर परमात्मा का चिन्तन करेगा तो यह परमात्मा की तरफ जायगा अर्थात् इसका उद्धार हो जायगा (गीता 8। 14) और अगर महत्ता , विशेषता , शोभा आदि को संसार की मानकर संसार का चिन्तन करेगा तो यह संसार की तरफ जायगा अर्थात् इसका पतन हो जायगा (गीता 2। 62 63)। इसलिये परमात्मा का चिन्तन करते हुए परमात्मा को तत्त्व से जानने के उद्देश्य से ही इन विभूतियों का वर्णन किया गया है। ‘तेजस्तेजस्विनामहम्’ (टिप्पणी प0 565.2) – महापुरुषों के उस दैवी सम्पत्ति वाले प्रभाव का नाम तेज है जिसके सामने पापी पुरुष भी पाप करने में हिचकते हैं। इस तेज को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। ‘जयोऽस्मि ‘ – विजय प्रत्येक प्राणी को प्रिय लगती है। विजय की यह विशेषता भगवान की है। इसलिये विजय को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। अपने मन के अनुसार अपनी विजय होने से जो सुख होता है उसका उपभोग न करके उसमें भगवद्बुद्धि करनी चाहिये कि विजयरूप से भगवान आये हैं। ‘व्यवसायोऽस्मि’ – व्यवसाय नाम एक निश्चय का है। इस एक निश्चय की भगवान ने गीता में बहुत महिमा गायी है जैसे – कर्मयोगी की निश्चयात्मिका बुद्धि एक होती है (2। 41) , भोग और ऐश्वर्य में आसक्त पुरुषों की निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती । (2। 44) अब तो मैं केवल भगवान का भजन ही करूँगा – इस एक निश्चय के बल पर दुराचारी से दुराचारी मनुष्य को भी भगवान साधु बताते हैं (9। 30)। इस प्रकार भगवान की तरफ चलने का जो निश्चय है उसको भगवान ने अपनी विभूति बताया है। निश्चय को अपनी विभूति बताने का तात्पर्य है कि साधक को ऐसा निश्चय तो रखना ही चाहिये पर इसको अपना गुण नहीं मानना चाहिये बल्कि ऐसा मानना चाहिये कि यह भगवान की विभूति है और उन्हीं की कृपा से मुझे प्राप्त हुई है। ‘सत्त्वं सत्त्ववतामहम्’ – सात्त्विक मनुष्यों में जो सत्त्व गुण है , जो सात्त्विक भाव और आचरण है वह भी भगवान की विभूति है। तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुण को दबाकर जो सात्त्विक भाव बढ़ता है उस सात्त्विक भाव को साधक अपना गुण न मानकर भगवान की विभूति माने। तेज , व्यवसाय , सात्त्विक भाव आदि अपने में अथवा दूसरों में देखने में आयें तो साधक इनको अपना अथवा किसी वस्तु-व्यक्ति का गुण न माने बल्कि भगवान का ही गुण माने। उन गुणों की तरफ दृष्टि जाने पर उनमें तत्त्वतः भगवान को देखकर भगवान को ही याद करना चाहिये – स्वामी रामसुखदास जी )