Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10

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विभूतियोग-  दसवाँ अध्याय

 

19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन

 

 

Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः 10.37

 

 

वृष्णीनाम्वृष्णि वंशियों में; वासुदेवःवासुदेव के पुत्र, श्रीकृष्ण; अस्मिहूँ; पाण्डवानाम्पाण्डवों में; धनंजयःधन और वैभव का स्वामी, अर्जुन; मुनीनाम्मुनियों में; अपिभी; अहम्मैं हूँ; व्यासःवेदव्यास; कवीनाम्महान विचारकों में; उशनाशुक्राचार्यः कविःविचारकों में।

 

 

वृष्णिवंशियों में मैं वासुदेव ( कृष्ण ) अर्थात्‌ मैं स्वयं तेरा सखा, पाण्डवों में मैं धनञ्जय ( अर्जुन ) अर्थात्‌ तू, मुनियों में वेदव्यास और महान कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूँ॥10.37

 

 

  ( ‘वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि ‘ – यहाँ भगवान श्रीकृष्ण के अवतार का वर्णन नहीं है बल्कि वृष्णिवंशियों में अपनी जो विशेषता है उस विशेषता को लेकर भगवान ने अपना विभूतिरूप से वर्णन किया है। यहाँ भगवान का अपने को विभूतिरूप से कहना तो संसार की दृष्टि से है , स्वरूप की दृष्टि से तो वे साक्षात् भगवान ही हैं। इस अध्याय में जितनी विभूतियाँ आयी हैं , वे सब संसार की दृष्टि से ही हैं। तत्त्वतः तो वे परमात्मस्वरूप ही हैं। ‘पाण्डवानां धनञ्जयः’ – पाण्डवों में अर्जुन की जो विशेषता है वह विशेषता भगवान की ही है। इसलिये भगवान ने अर्जुन को अपनी विभूति बताया है। ‘मुनीनामप्यहं व्यासः’ – वेद का चार भागों में विभाग , पुराण , उप-पुराण , महाभारत आदि जो कुछ संस्कृत वाङ्मय है , वह सब का सब व्यासजी की कृपा का ही फल है। आज भी कोई नयी रचना करता है तो उसे भी व्यासजी का ही उच्छिष्ट माना जाता है। कहा भी है – ‘व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्।’ इस तरह सब मुनियों में व्यासजी मुख्य हैं। इसलिये भगवान ने व्यासजी को अपनी विभूति बताया है। तात्पर्य है कि व्यासजी में विशेषता दीखते ही भगवान की ही याद आनी चाहिये कि यह सब विशेषता भगवान की है और भगवान से ही आयी है। ‘कवीनामुशना कविः’ – शास्त्रीय सिद्धान्तों को ठीक तरह से जानने वाले जितने भी पण्डित हैं वे सभी कवि कहलाते हैं। उन सब कवियों में शुक्राचार्य जी मुख्य हैं। शुक्राचार्यजी संजीवनी विद्या के ज्ञाता हैं। इनकी शुक्रनीति प्रसिद्ध है। इस प्रकार अनेक गुणों के कारण भगवान ने इन्हें अपनी विभूति बताया है। इन विभूतियों की महत्ता देखकर कहीं भी बुद्धि अटके तो उस महत्ता को भगवान की ही माननी चाहिये क्योंकि वह महत्ता एक क्षण भी स्थायी रूप से न टिकने वाले संसार की नहीं हो सकती – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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