Contents
Previous Menu Next
विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
01-07 भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥10.2॥
न–कभी नहीं; मे–मेरे; विदुः–जानना; सुरगणाः–देवतागणः प्रभवम् – उत्पत्ति; न–कभी नहीं; महाऋषयः–महान ऋषि; अहम्–मैं; आदि:-मूल स्रोत; हि–नि:संदेह; देवानाम्–स्वर्ग के देवताओं का; महाऋषीणाम्–महान ऋर्षियों का; च–भी; सर्वशः–सभी प्रकार से।
मेरी उत्पत्ति को अर्थात् लीला से प्रकट होने को न देवता गण जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ॥10.2॥
(‘न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः’ – यद्यपि देवताओं के शरीर , बुद्धि , लोक , सामग्री आदि सब दिव्य हैं तथापि वे मेरे प्रकट होने को नहीं जानते। तात्पर्य है कि मेरा जो विश्वरूप से प्रकट होना है ; मत्स्य , कच्छप आदि अवताररूप से प्रकट होना है ; सृष्टि में क्रियाभाव और विभूतिरूप से प्रकट होना है – ऐसे मेरे प्रकट होने के उद्देश्य को , लक्ष्य को , हेतुओं या कारणों को देवता भी पूरा-पूरा नहीं जानते। मेरे प्रकट होने को पूरा-पूरा जानना तो दूर रहा उनको तो मेरे दर्शन भी बड़ी कठिनता से होते हैं। इसलिये वे मेरे दर्शन के लिये हरदम लालायित रहते हैं (गीता 11। 52)। ऐसे ही जिन महर्षियों ने अनेक ऋचाओं को, मन्त्रों को , विद्याओं को , विलक्षण-विलक्षण शक्तियों को प्रकट किया है जो संसार से ऊँचे उठे हुए हैं जो दिव्य अनुभव से युक्त हैं जिनके लिये कुछ करना , जानना और पाना बाकी नहीं रहा है – ऐसे तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महर्षि लोग भी मेरे प्रकट होने को अर्थात् मेरे अवतारों को अनेक प्रकार की लीलाओं को मेरे महत्त्व को पूरा-पूरा नहीं जानते। यहाँ भगवान ने देवता और महर्षि – इन दोनों का नाम लिया है। इसमें ऐसा मालूम देता है कि ऊँचे पद की दृष्टि से देवता का नाम और ज्ञान की दृष्टि से महर्षि का नाम लिया गया है। इन दोनों का मेरे प्रकट होने को न जानने में कारण यह है कि मैं देवताओं और महर्षियों का सब प्रकार से आदि हूँ – ‘अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।’ उनमें जो कुछ बुद्धि है , शक्ति है , सामर्थ्य है , पद है , प्रभाव है , महत्ता है , वह सब उन्होंने मेरे से ही प्राप्त की है। अतः मेरे से प्राप्त किये हुए प्रभाव , शक्ति , सामर्थ्य आदि से वे मेरे को पूरा कैसे जान सकते हैं ? अर्थात् नहीं जान सकते। जैसे बालक जिस माँ से पैदा हुआ है उस माँ के विवाह को और अपने शरीर के पैदा होने को नहीं जानता – ऐसे ही देवता और महर्षि मेरे से ही प्रकट हुए हैं । अतः वे मेरे प्रकट होने को और अपने कारण को नहीं जानते। कार्य अपने कारण में लीन तो हो सकता है पर उसको जान नहीं सकता। ऐसे ही देवता और महर्षि मेरे से उत्पन्न होने से , मेरा कार्य होने से कारणरूप मेरे को नहीं जान सकते बल्कि मेरे में लीन हो सकते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि देवता और महर्षि भगवान के आदि को , अन्त को और वर्तमान की इयत्ता को अर्थात् भगवान ऐसे ही हैं इतने ही अवतार लेते हैं – इस माप-तौल को नहीं जान सकते। कारण कि इन देवताओं और महर्षियों के प्रकट होने से पहले भी भगवान ज्यों के त्यों ही थे और उनके लीन होने पर भी भगवान ज्यों के त्यों ही रहेंगे। अतः जिनके शरीरों का आदि और अन्त होता रहता है वे देवता और महर्षि अनादि अनन्त को अर्थात् असीम परमात्मा को अपनी सीमित बुद्धि , योग्यता , सामर्थ्य आदि के द्वारा कैसे जान सकते हैं ? असीम को अपनी सीमित बुद्धि के अन्तर्गत कैसे ला सकते हैं ? अर्थात् नहीं ला सकते। इसी अध्याय के 14वें श्लोक में अर्जुन ने भी भगवान से कहा है कि आपको देवता और दानव नहीं जानते क्योंकि देवताओं के पास भोगसामग्री की और दानवों के पास मायाशक्ति की अधिकता है। तात्पर्य है कि भोगों में लगे रहने से देवताओं को (मेरे को जानने के लिये ) समय ही नहीं मिलता और मायाशक्ति से छल-कपट करने से दानव मेरे को जान ही नहीं सकते। पूर्वश्लोक में कहा गया कि देवता और महर्षिलोग भी भगवान के प्रकट होने को सर्वथा नहीं जान सकते तो फिर मनुष्य भगवान को कैसे जानेगा ? और उसका कल्याण कैसे होगा ? इसका उपाय आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )