Contents
Previous Menu Next
विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
12-18 अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहनेके लिए प्रार्थना
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥10.16॥
वक्तुम्- वर्णन करना; अर्हसि–कृपा करे; अशेषेण–पूर्णरूप से; दिव्याः–अलौकिक; हि–वास्तव में; आत्म–तुम्हारा अपना; विभूतयः–ऐश्वर्य; याभि:-जिनके द्वारा; विभूतिभिः–ऐश्वर्य से; लोकान्–समस्त लोकों को; इमान्–इन; त्वम्–आप; व्याप्य–व्याप्त होकर; तिष्ठसि – स्थित हैं।
इसलिए आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं अर्थात आप कृपया विस्तारपूर्वक मुझे अपने दिव्य ऐश्वर्यों से अवगत कराएँ जिनके द्वारा आप समस्त संसार में व्याप्त होकर उनमें रहते हों।॥10.16॥
(‘याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ‘ – भगवान ने पहले (सातवें श्लोक में) यह बात कही थी कि जो मनुष्य मेरी विभूतियों को और योग को तत्त्व से जानता है , उसका मेरे में अटल भक्तियोग हो जाता है। उसे सुनने पर अर्जुन के मन में आया कि भगवान में दृढ़ भक्ति होने का यह बहुत सुगम और श्रेष्ठ उपाय है क्योंकि भगवान की विभूतियों को और योग को तत्त्व से जानने पर मनुष्य का मन भगवान की तरफ स्वाभाविक ही खिंच जाता है और भगवान में उसकी स्वाभाविक ही भक्ति जाग्रत् हो जाती है। अर्जुन अपना कल्याण चाहते हैं और कल्याण के लिये उनको भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ उपाय दिखती है। इसलिये अर्जुन कहते हैं कि जिन विभूतियों से आप सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं उन अलौकिक , विलक्षण विभूतियों का विस्तारपूर्वक सम्पूर्णता से वर्णन कीजिये। कारण कि उनको कहने में आप ही समर्थ हैं आपके सिवाय उन विभूतियों को और कोई नहीं कह सकता। ‘वक्तुमर्हस्यशेषेण ‘ – आपने पहले (7वें , 9वें और यहाँ 10वें अध्याय के आरम्भ में ) अपनी विभूतियाँ बतायीं और उनको जानने का फल दृढ़ भक्तियोग होना बताया। अतः मैं भी आपकी सब विभूतियों को जान जाऊँ और मेरा भी आप में दृढ़ भक्तियोग हो जाय इसलिये आप अपनी विभूतियों को पूरी की पूरी कह दें बाकी कुछ न रखें। ‘दिव्या ह्यात्मविभूतयः’ – विभूतियों को दिव्य कहने का तात्पर्य है कि संसार में जो कुछ विशेषता दिखती है वह मूल में दिव्य परमात्मा की ही है , संसारकी नहीं। अतः संसार की विशेषता देखना भोग है और परमात्मा की विशेषता देखना विभूति है , योग है – स्वामी रामसुखदास जी )