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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
12-18 अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहनेके लिए प्रार्थना
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥10.14॥
सर्वम्–सब कुछ; एतत्–इस; ऋतम्–सत्य; मन्ये–मैं स्वीकार करता हूँ; यत्–जिसका; माम्–मुझे वदसि–तुम कहते हो; केशव–केशी नामक असुर का दमन करने वाले, श्रीकृष्ण; न –कभी नहीं; हि–निश्चय ही; ते–आपके; भगवन्–परम भगवान; व्यक्तिम्–व्यक्तित्व; विदुः–जान सकते हैं; देवाः–देवतागण; न–न तो; दानवाः–असुर।
हे केशव! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं अर्थात आप जो कुछ भी मुझ से कह रहे हैं , मैं यह सब पूर्णतया सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके लीलामय स्वरूप ( आपके प्रकट होने को ) अर्थात आपके वास्तविक स्वरूप को न तो दानव जानते हैं और न देवता ही॥10.14॥
(‘सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव’ – ‘क’ नाम ‘ब्रह्मा’ का है , ‘अ’ नाम ‘विष्णु’ का है , ‘ईश’ नाम ‘शंकर’ का है और ‘व’ नाम ‘वपु’ अर्थात् स्वरूप का है। इस प्रकार ब्रह्मा , विष्णु और शंकर जिसके स्वरूप हैं उसको केशव कहते हैं। अर्जुन का यहाँ ‘केशव’ सम्बोधन देने का तात्पर्य है कि आप ही संसार की उत्पत्ति , स्थिति और संहार करने वाले हैं। 7वें से 9वें अध्याय तक मेरे प्रति आप ‘यत्’ – जो कुछ कहते आये हैं , वह सब मैं सत्य मानता हूँ और ‘एतत्’ – अभी 10वें अध्याय में आपने जो विभूति तथा योग का वर्णन किया है वह सब भी मैं सत्य मानता हूँ। तात्पर्य है कि आप ही सबके उत्पादक और संचालक हैं। आपसे भिन्न कोई भी ऐसा नहीं हो सकता। आप ही सर्वोपरि हैं। इस प्रकार सबके मूल में आप ही हैं – इसमें मेरे को कोई सन्देह नहीं है। भक्तिमार्ग में विश्वास की मुख्यता है। भगवान ने पहले श्लोक में अर्जुन को परम वचन सुनने के लिये आज्ञा दी थी उसी परम वचन को अर्जुन यहाँ ‘ऋतम्’ अर्थात् सत्य कहकर उस पर विश्वास प्रकट करते हैं। ‘न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः’ – आपने (गीता 4। 5 में) कहा है कि मेरे और तेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं उन सबको मैं जानता हूँ तू नहीं जानता। इसी प्रकार आपने ( 10। 2 में) कहा है कि मेरे प्रकट होने को देवता और महर्षि भी नहीं जानते। अपने प्रकट होने के विषय में आपने जो कुछ कहा है वह सब ठीक ही है। कारण कि मनुष्यों की अपेक्षा देवताओं में जो दिव्यता है , वह दिव्यता भगवत्तत्त्व को जानने में कुछ भी काम नहीं आती। वह ‘दिव्यता प्राकृत ‘ – उत्पन्न और नष्ट होने वाली है। इसलिये वे आपके प्रकट होने के तत्त्व को हेतु को पूरा-पूरा नहीं जान सकते। जब देवता भी नहीं जान सकते तो दानव जान ही कैसे सकते हैं ? फिर भी यहाँ ‘दानवाः’ पद देने का तात्पर्य यह है कि दानवों के पास बहुत विलक्षण-विलक्षण माया है जिससे वे विचित्र प्रभाव दिखा सकते हैं परन्तु उस मायाशक्ति से वे भगवान को नहीं जान सकते। भगवान के सामने दानवोंकी माया कुण्ठित हो जाती है। कारण कि प्रकृति और प्रकृति की जितनी शक्तियाँ हैं उन सबसे भगवान अतीत हैं। भगवान अनन्त हैं , असीम हैं और दानवों की मायाशक्ति कितनी ही विलक्षण होने पर भी प्राकृत , सीमित और उत्पत्तिविनाशशील है। सीमित और नाशवान वस्तु के द्वारा असीम और अविनाशी तत्त्व को कैसे जाना जा सकता है ? तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य , देवता , दानव आदि कोई भी अपनी शक्ति से , सामर्थ्य से , योग्यता से , बुद्धि से भगवान को नहीं जान सकते। कारण कि मनुष्य आदि में जितनी जानने की योग्यता , सामर्थ्य , विशेषता है , वह सब प्राकृत है और भगवान प्रकृति से अतीत हैं। त्याग , वैराग्य , तप, स्वाध्याय आदि अन्तःकरण को निर्मल करने वाले हैं पर इनके बल से भी भगवान को नहीं जान सकते। भगवान को तो अनन्यभाव से उनके शरण होकर उनकी कृपा से ही जान सकते हैं। (गीता 10। 11 11। 54) स्वामी रामसुखदास जी )