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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥10.20॥
अहम्–मैं; आत्मा आत्मा; गुडाकेश–निद्रा को वश में करने वाला, अर्जुन, सर्वभूत–समस्त जीव; आशयस्थित:-हृदय में स्थित; अहम्–मैं; आदि:-आदि ; च–भी ; मध्यम्–मध्य; च–भी; भूतानाम् – समस्त जीवों का; अन्तः–अंत; एव–निश्चय ही; च–भी।
हे गुडाकेश ( नींद को जीतने वाले अर्जुन ) ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा संपूर्ण भूतों ( जीवों ) का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूँ॥10.20॥
[भगवान का चिन्तन दो तरह से होता है – (1) साधक अपना जो इष्ट मानता है उसके सिवाय दूसरा कोई भी चिन्तन न हो। कभी हो भी जाय तो मन को वहाँ से हटाकर अपने इष्टदेव के चिन्तन में ही लगा दे और (2) मन में सांसारिक विशेषता को लेकर चिन्तन हो तो उस विशेषता को भगवान की ही विशेषता समझे। इस दूसरे चिन्तन के लिये ही यहाँ विभूतियों का वर्णन है। तात्पर्य है कि किसी विशेषता को लेकर जहाँ कहीं वृत्ति जाय वहाँ भगवान का ही चिन्तन होना चाहिये , उस वस्तु-व्यक्ति का नहीं। इसी के लिये भगवान विभूतियों का वर्णन कर रहे हैं।] ‘अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च’ (टिप्पणी प0 555) – यहाँ भगवान ने अपनी सम्पूर्ण विभूतियों का सार कहा है कि सम्पूर्ण प्राणियों के आदि , मध्य तथा अन्त में मैं ही हूँ। यह नियम है कि जो वस्तु उत्पत्तिविनाशशील होती है उसके आरम्भ और अन्त में जो तत्त्व रहता है वही तत्त्व उसके मध्य में भी रहता है (चाहे दिखे या न दिखे ) अर्थात् जो वस्तु जिस तत्त्व से उत्पन्न होती है और जिसमें लीन होती है उस वस्तु के आदि , मध्य और अन्त में (सब समय में ) वही तत्त्व रहता है। जैसे सोने से बने गहने पहले सोनारूप होते हैं और अन्त में (गहनों के सोने में लीन होने पर) सोनारूप ही रहते हैं तथा बीच में भी सोनारूप ही रहते हैं। केवल नाम , आकृति , उपयोग , माप , तौल आदि अलग-अलग होते हैं और इनके अलग-अलग होते हुए भी गहने सोना ही रहते हैं। ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी आदि में भी परमात्मस्वरूप थे और अन्त में लीन होने पर भी परमात्मस्वरूप रहेंगे तथा मध्य में नाम , रूप , आकृति , क्रिया , स्वभाव आदि अलग-अलग होने पर भी तत्त्वतः परमात्मस्वरूप ही हैं – यह बताने के लिये ही यहाँ भगवान ने अपने को सम्पूर्ण प्राणियों के आदि , मध्य और अन्त में कहा है। भगवान ने विभूतियों के इस प्रकरण में आदि , मध्य और अन्त में – तीन जगह साररूप से अपनी विभूतियों का वर्णन किया है। पहले इस 20वें श्लोक में भगवान ने कहा कि सम्पूर्ण प्राणियों के आदि , मध्य और अन्त में मैं ही हूँ । बीच के 32वें श्लोक में कहा कि सम्पूर्ण सर्गों के आदि , मध्य और अन्त में मैं ही हूँ और अन्त के 39वें श्लोक में कहा कि सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है वह मैं ही हूँ क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है। चिन्तन करने के लिये यही विभूतियों का सार है। तात्पर्य यह है कि किसी विशेषता आदि को लेकर जो विभूतियाँ कही गयी हैं उन विभूतियों के अतिरिक्त भी जो कुछ दिखायी दे वह भी भगवान की ही विभूति है – यह बताने के लिये भगवान ने अपने को सम्पूर्ण चराचर प्राणियों के आदि , मध्य तथा अन्त में विद्यमान कहा है। तत्त्व से सब कुछ परमात्मा ही है – ‘वासुदेवः सर्वम्’ – इस लक्ष्य को बताने के लिये ही विभूतियाँ कही गयी हैं। इस 20वें श्लोक में भगवान ने प्राणियों में जो आत्मा है , जीवों का जो स्वरूप है , उसको अपनी विभूति बताया है। फिर 32वें श्लोक में भगवान ने सृष्टिरूप से अपनी विभूति बतायी कि जो जड-चेतन , स्थावर-जङ्गम सृष्टि है उसके आदि में मैं एक ही बहुत रूपों में हो जाऊँ (बहु स्यां प्रजायेयेति छान्दोग्य0 6। 2। 3) – ऐसा संकल्प करता हूँ और अन्त में मैं ही शेष रहता हूँ – ‘शिष्यते शेषसंज्ञः’ (श्रीमद्भा0 10। 3। 25)। अतः बीच में भी सब कुछ मैं ही हूँ – ‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता 7। 19) ‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता 9। 19 ) क्योंकि जो तत्त्व आदि और अन्त में होता है वही तत्त्व बीच में होता है। अन्त में 39वें श्लोक में भगवान ने बीज (कारण ) रूप से अपनी विभूति बतायी कि मैं ही सबका बीज हूँ मेरे बिना कोई भी प्राणी नहीं है। इस प्रकार इन तीन जगह – तीन श्लोकों में मुख्य विभूतियाँ बतायी गयी हैं और अन्य श्लोकों में जो समुदाय में मुख्य हैं जिनका समुदाय पर आधिपत्य है , जिनमें कोई विशेषता है , उनको लेकर विभूतियाँ बतायी गयी हैं परन्तु साधक को चाहिये कि वह इन विभूतियों की महत्ता , विशेषता , सुन्दरता , आधिपत्य आदि की तरफ खयाल न करे बल्कि ये सब विभूतियाँ भगवान से ही प्रकट होती हैं – इनमें जो महत्ता आदि है वह केवल भगवान की है , ये विभूतियाँ भगवत्स्वरूप ही हैं – इस तरफ खयाल रखे। कारण कि अर्जुन का प्रश्न भगवान के चिन्तन के विषय में है (10। 17) किसी वस्तु , व्यक्ति के चिन्तन के विषय में नहीं। ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’ – साधक इन विभूतियों का उपयोग कैसे करे ? इसे बताते हैं कि जब साधक की दृष्टि प्राणियों की तरफ चली जाय तब वह सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मारूप से भगवान ही हैं – इस तरह भगवान का चिन्तन करे। जब किसी विचारक साधक की दृष्टि सृष्टि की तरफ चली जाय तब वह उत्पत्तिविनाशशील और हरदम परिवर्तनशील सृष्टि के आदि , मध्य तथा अन्त में एक भगवान ही हैं इस तरह भगवान का चिन्तन करे। कभी प्राणियों के मूल की तरफ उसकी दृष्टि चली जाय तब वह बीजरूप से भगवान ही हैं – भगवान के बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है और हो सकता भी नहीं – इस तरह भगवान का चिन्तन करे – स्वामी रामसुखदास जी )