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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥10.41॥
यत् यत्–जो जो; विभूति–शक्ति; मत्–युक्त; सत्त्वम्–अस्तित्व; श्रीमत्–सुन्दर; ऊर्जितम्–यशस्वी; एव–भी; वा–अथवा; तत्–तत्–वे सब; एव–निःसंदेह; अवगच्छ–जानो; त्वम्–तुम; मम–मेरे; तेजोअंशसम्भवम्–तेज के अंश की अभिव्यक्ति;
जो–जो भी विभूतियुक्त ( ऐश्वर्ययुक्त ) , कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु या प्राणी है, उस–उस को तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान अर्थात तुम जिसे सौंदर्य, ऐश्वर्य या तेज के रूप में देखते हो उसे मेरे से उत्पन्न किन्तु मेरे तेज का स्फुलिंग मानो॥10.41॥
(‘यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ‘ – संसारमात्र में जिस किसी सजीव-निर्जीव वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति , गुण , भाव , क्रिया आदि में जो कुछ ऐश्वर्य दिखे , शोभा या सौन्दर्य दिखे , बलवत्ता दिखे तथा जो कुछ भी विशेषता , विलक्षणता , योग्यता दिखे उन सबको मेरे तेज के किसी एक अंश से उत्पन्न हुई जानो। तात्पर्य है कि उनमें वह विलक्षणता मेरे योग से , सामर्थ्य से , प्रभाव से ही आयी है – ऐसा तुम समझो – ‘तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्।’ मेरे बिना कहीं भी और कुछ भी विलक्षणता नहीं है। मनुष्य को जिस-जिस में विशेषता मालूम दे उस-उस में भगवान की ही विशेषता मानते हुए भगवान का ही चिन्तन होना चाहिये। अगर भगवान को छोड़कर दूसरे वस्तु , व्यक्ति आदि की विशेषता दिखती है तो यह पतन का कारण है। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने मन में यदि पति के सिवाय दूसरे किसी पुरुष की विशेषता रखती है तो उसका पातिव्रत्य भंग हो जाता है ऐसे ही भगवान के सिवाय दूसरी किसी वस्तु की विशेषता को लेकर मन खिंचता है तो व्यभिचार दोष आ जाता है अर्थात् भगवान के अनन्यभाव का व्रत भंग हो जाता है। संसार में छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी वस्तु , व्यक्ति , क्रिया आदि में जो भी महत्ता , सुन्दरता , सुखरूपता दिखती है और जो कुछ लाभरूप , हितरूप दिखती है वह वास्तव में सांसारिक वस्तु का है ही नहीं। अगर उस वस्तु का होता तो वह सब समय रहता और सबको दीखता पर वह न तो सब समय रहता है और न सबको दिखता है। इससे सिद्ध होता है कि वह उस वस्तु का नहीं है। तो फिर किसका है ? उस वस्तु का जो आधार है , उस परमात्मा का है। उस परमात्मा की झलक ही उस वस्तु में सुन्दरता , सुखरूपता आदि रूपों से दिखती है परन्तु जब मनुष्यकी वृत्ति परमात्मा की महिमा की तरफ न जाकर उस वस्तु की तरफ ही जाती है तब वह संसार में फँस जाता है। संसार में फँसने पर उसको न तो कुछ मिलता है और न उसकी तृप्ति ही होती है। इसमें सुख नहीं है , इससे तृप्ति नहीं होती – इतना अनुभव होने पर भी मनुष्य का वस्तु आदिमें सुखरूपता का वहम मिटता नहीं। मनुष्य को सावधानी के साथ विचारपूर्वक देखना चाहिये कि प्रतिक्षण मिटने वाली वस्तु में जो सुख दिखता है वह उसका कैसे हो सकता है ? वह वस्तु प्रतिक्षण नष्ट हो रही है तो उसमें दिखने वाली महत्ता , सुन्दरता उस वस्तु की कैसे हो सकती है ? जैसे बिजली के सम्बन्ध से रेडियो बोलता है तो मनुष्य राजी होता है कि देखो इस यन्त्र से कैसी आवाज आ रही है ? पर वास्तव में उस रेडियो में जो कुछ शक्ति है वह सब बिजली की ही है। बिजली से सम्बन्ध न होने पर केवल यन्त्र से आवाज नहीं निकाली जा सकती। अनजान व्यक्ति तो उस शक्ति को यन्त्र की ही मान लेता है पर जानकार व्यक्ति उस शक्ति को बिजली की ही मानता है। ऐसे ही किसी वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ , क्रिया आदि में जो कुछ विशेषता दिखती है उसको अनजान मनुष्य तो उस वस्तु , व्यक्ति आदि की ही मान लेता है पर जानकार मनुष्य उस विशेषता को भगवान की ही मानता है। इसी अध्याय में 8वें श्लोक में भगवान ने कहा है कि सब मेरे से ही पैदा होते हैं और सबमें मेरी ही शक्ति है। इसमें भगवान का तात्पर्य यही है कि तुम्हें जहाँ कहीं और जिस किसी में विशेषता , महत्ता , सुन्दरता , बलवत्ता आदि दिखे वह सब मेरी ही है उनकी नहीं। एक वेश्या बड़े सुन्दर स्वरों में गाना गा रही थी तो उसको सुनकर एक सन्त मस्त हो गये कि देखो ठाकुरजी ने कैसा कण्ठ दिया है , कितनी सुन्दर आवाज दी है तो सन्त की दृष्टि वेश्या पर नहीं गयी बल्कि भगवान पर गयी कि इसके कण्ठ में जो आकर्षण है , मिठास है , वह भगवान की ही है। ऐसे ही कोई फूल दिखे तो राजी हो जाय कि वाह-वाह ! भगवान ने इसमें कैसी सुन्दरता भरी है । कोई किसी को बढ़िया पढ़ा रहा है तो बढ़िया पढ़ाने की शक्ति भगवान की है पढ़ाने वाले की नहीं। देवताओं को बृहस्पति प्रिय लगते हैं , रघुवंशियों को वसिष्ठजी प्रिय लगते हैं , किसी को सिंह में विशेषता दिखती है , किसी को रुपये बहुत प्यारे लगते हैं तो उनमें जिस शक्ति , महत्ता , विशेषता आदि को लेकर आकर्षण , प्रियता, खिंचाव हो रहा है वह शक्ति , महत्ता आदि भगवान की ही है उनकी अपनी नहीं। इस तरह जिस किसी में जहाँ कहीं विशेषता दिखे वह भगवान की ही दिखनी चाहिये। इसलिये भगवान ने अनेक तरह की विभूतियाँ बतायी हैं। इसका तात्पर्य है कि उन विभूतियों में श्रद्धा , रुचि के भेद से आकर्षण हरेक का अलग-अलग होगा । एक समान सबको विभूतियाँ अच्छी नहीं लगेंगी पर उन सबमें शक्ति भगवान की है। यद्यपि जिस किसी में जो भी विशेषता है वह परमात्मा की है तथापि जिनसे हमें लाभ हुआ है अथवा हो रहा है उनके हम जरूर कृतज्ञ बनें , उनकी सेवा करें परन्तु उनकी व्यक्तिगत विशेषता मानकर वहाँ फँस न जायँ – यह सावधानी रखें। विशेष बात- भगवान ने 20वें श्लोक से लेकर 39वें श्लोक तक जितनी विभूतियाँ कही हैं उनमें प्रायः अस्मि (मैं हूँ ) पद का प्रयोग किया है। केवल तीन जगह – 24वें और 27वें श्लोक में विद्धि तथा यहाँ 41वें श्लोक में अवगच्छ पद का प्रयोग करके जानने की बात कही है। अस्मि (मैं हूँ) पद का प्रयोग करने का तात्पर्य विभूतियों के मूल तत्त्व का लक्ष्य कराने में है कि इन सब विभूतियों के मूल में मैं ही हूँ। कारण कि 17वें श्लोक में अर्जुन ने पूछा था कि मैं आपको कैसे जानूँ? तो भगवान ने अस्मि का प्रयोग करके सब विभूतियों में अपने को जानने की बात कही। दो जगह विद्धि पद का प्रयोग करने का तात्पर्य मनुष्य को सावधान , सावचेत कराने में है। मनुष्य दो के द्वारा सावचेत होता है – ज्ञान के द्वारा और शासन के द्वारा। ज्ञान गुरु के द्वारा प्राप्त होता है और शासन स्वयं राजा करता है। अतः 24वें श्लोक में जहाँ गुरु बृहस्पति का वर्णन आया है वहाँ विद्धि कहने का तात्पर्य है कि तुम लोग गुरु के द्वारा मेरी विभूतियों के तत्त्व को ठीक तरह से समझो। विभूतियों के तत्त्व को समझने का फल है – मेरे में दृढ़ भक्ति होना (गीता 10। 7)। 27वें श्लोक में जहाँ राजा का वर्णन आया है वहाँ विद्धि कहने का तात्पर्य है कि तुम लोग राजा के शासन द्वारा उन्मार्ग से बचकर सन्मार्ग में लगना अर्थात् अपना जीवन शुद्ध बनाना समझो। गुरु प्रेम से समझाता है और राजा बल से , भय से समझाता है। गुरु के समझाने में उद्धार की बात मुख्य रहती है और राजा के समझाने में लौकिक मर्यादा का पालन करने की बात मुख्य रहती है। 27वें श्लोक में जो उच्चैःश्रवा और ऐरावत का वर्णन आया है वे दोनों राजा के वैभव के उपलक्षण हैं। कारण कि घोड़े , हाथी आदि राजा के ऐश्वर्य हैं और ऐश्वर्यवान् राजा ही शासन करता है। इसलिये उस श्लोक में विद्धि पद का प्रयोग खास करके राजा के लिये ही किया हुआ मालूम देता है। यहाँ 41वें श्लोक में जो अवगच्छ पद आया है उसका अर्थ है – वास्तविकता से समझना कि जो कुछ भी विशेषता दिखती है वह वस्तुतः भगवान की ही है। इस प्रकार दो बार विद्धि और एक बार अवगच्छ पद देने का तात्पर्य यह है कि गुरु और राजा के द्वारा समझाने पर भी जब तक मनुष्य स्वयं उनकी बात को वास्तविकता से नहीं समझेगा , उनकी बात को नहीं मानेगा तबतक गुरु का ज्ञान और राजा का शासन उसके काम नहीं आयेगा। अन्त में तो स्वयं को ही मानना पड़ेगा और वही उसके काम आयेगा। यहाँ तक अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देकर अब भगवान अपनी तरफ से खास बात बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )
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