Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10

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विभूतियोग-  दसवाँ अध्याय

 

19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन

 

 

Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन

तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌ 10.39

 

 

यत्जो; और; अपिभी; सर्वभूतानाम्समस्त जीवों में; बीजम्जनक बीज; तत्वह; अहम्मैं हूँ; अर्जुनअर्जुन; नहीं; तत्वह; अस्ति है; विनारहित; यत्जो; स्यात्हो; मयामुझसे; भूतम्जीव; चर अचरम्चर अचर।।

 

 

हे अर्जुन! जो समस्त भूतों की उत्पत्ति का बीज ( कारण ) है, वह भी मैं ही हूँ अर्थात मैं सम्पूर्ण प्राणियों का जनक बीज हूँ क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत या प्राणी नहीं है, जो मुझसे रहित हो अर्थात् चरअचर सब कुछ मैं ही हूँ॥10.39

 

 

(  ‘यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदमहर्जुन’ – यहाँ भगवान समस्त विभूतियों का सार बताते हैं कि सबका बीज अर्थात् कारण मैं ही हूँ। बीज कहने का तात्पर्य है कि इस संसार का निमित्त कारण भी मैं हूँ और उपादान कारण भी मैं हूँ अर्थात् संसार को बनाने वाला भी मैं हूँ और संसार रूप से बनने वाला भी मैं हूँ। भगवान ने 7वें अध्याय के 10वें श्लोक में अपने को सनातन बीज , 9वें अध्याय के 18वें श्लोक में अव्यय बीज और यहाँ केवल बीज बताया है। इसका तात्पर्य है कि मैं ज्यों का त्यों रहता हुआ ही संसाररूप से प्रकट हो जाता हूँ और संसाररूप से प्रकट होने पर भी मैं उसमें ज्यों का त्यों व्यापक रहता हूँ। ‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्’ – संसार में जड-चेतन , स्थावर-जङ्गम , चर-अचर आदि जो कुछ भी देखने में आता है वह सब मेरे बिना नहीं हो सकता। सब मेरे से ही होते हैं अर्थात् सब कुछ मैं ही मैं हूँ। इस वास्तविक मूल तत्त्व को जानकर साधक की इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि जहाँ कहीं जाये अथवा मन-बुद्धि में संसार की जो कुछ बात याद आये उन सबको भगवान का ही स्वरूप माने। ऐसा मानने से साधक को भगवान का ही चिन्तन होगा , दूसरे का नहीं क्योंकि तत्त्व से भगवान के सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं। यहाँ भगवान ने कहा है कि मेरे सिवाय चर-अचर कुछ नहीं है अर्थात् सब कुछ मैं ही हूँ और 18वें अध्याय के 40वें श्लोक में कहा है कि सत्त्व , रज और तम – इन तीनों गुणों के सिवाय कुछ नहीं है अर्थात् सब गुणों का ही कार्य है। इस भेद का तात्पर्य है कि यहाँ भक्तियोग का प्रकरण है। इस प्रकरण में अर्जुन ने प्रश्न किया है कि मैं आपका कहाँ-कहाँ चिन्तन करूँ इसलिये उत्तर में भगवान ने कहा कि तेरे मन में जिस-जिस का चिन्तन होता है वह सब मैं ही हूँ परन्तु वहाँ (18। 40 में) सांख्ययोग का प्रकरण है। सांख्ययोग में प्रकृति और पुरुष – दोनों के विवेक की तथा प्रकृति में सम्बन्ध-विच्छेद करने की प्रधानता है। प्रकृति का कार्य होनेसे मात्र सृष्टि त्रिगुणमयी है (टिप्पणी प0 567.2)। इसलिये वहाँ तीनों गुणों से रहित कोई नहीं है – ऐसा कहा गया है। विशेष बात- भगवान ने ‘अहमात्मा गुडाकेश’ (10। 20) से लेकर ‘बीजं तदहमर्जुन ‘ (10। 39) तक जो बयासी ( 82 ) विभूतियाँ कही हैं उनका तात्पर्य छोटा-बड़ा , उत्तम-मध्यम , अधम बताने में नहीं है बल्कि यह बताने में है कि कोई भी वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि सामने आये तो उसमें भगवान का ही चिन्तन होना चाहिये (टिप्पणी प0 568.1)। कारण कि मूल में अर्जुन का प्रश्न यही था कि आपका चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ ? और किन-किन भावों में मैं आपका चिन्तन करूँ ? (गीता 10। 17)। उस प्रश्न के उत्तर में चिन्तन करने के लिये ही भगवान ने अपनी विभूतियों का संक्षिप्त वर्णन किया है। जैसे यहाँ गीता में भगवान ने अर्जुन से अपनी विभूतियाँ कही हैं । ऐसे ही श्रीमद्भागवत में (11वें स्कन्ध के 16वें अध्याय में) भगवान ने उद्धवजी से अपनी विभूतियाँ कही हैं। गीता में कही कुछ विभूतियाँ भागवत में नहीं आयी हैं और भागवत में कही कुछ विभूतियाँ गीता में नहीं आयी हैं। गीता और भागवत में कही गयी कुछ विभूतियों में तो समानता है पर कुछ विभूतियों में दोनों जगह अलग-अलग बात आयी है जैसे – गीता में भगवान ने पुरोहितों में बृहस्पति को अपनी विभूति बताया है – ‘पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्’ (10। 24) और भागवत में भगवान ने पुरोहितों में वसिष्ठजी को अपनी विभूति बताया है – ‘पुरोधसां वसिष्ठोऽहम्’ (11। 16। 22)। अब शङ्का यह होती है कि गीता और भागवत की विभूतियों का वक्ता एक होने पर भी दोनों में एक समान बात क्यों नहीं मिलती ? इसका समाधान यह है कि वास्तव में विभूतियाँ कहने में भगवान का  तात्पर्य किसी वस्तु , व्यक्ति आदि की महत्ता बताने में नहीं है बल्कि अपना चिन्तन कराने में है। अतः गीता और भागवत – दोनों ही जगह कही हुई विभूतियों में भगवान का चिन्तन करना ही मुख्य है। इस दृष्टि से जहाँ-जहाँ विशेषता दिखायी दे वहाँ-वहाँ वस्तु , व्यक्ति आदि की विशेषता न देखकर केवल भगवान की ही विशेषता देखनी चाहिये और भगवान की ही तरफ वृत्ति जानी चाहिये। अब आगे के श्लोक में भगवान अपनी दिव्य विभूतियों के कथन का उपंसहार करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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