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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥10.25॥
महा ऋषीणाम्–महर्षियों में; भृगुः–भृगुः अहम्–मैं हूँ; गिराम्–वाणी में; अस्मि–हूँ; एकम् अक्षरम्–ओम; यज्ञानाम्–यज्ञों में; जप–यज्ञः–भगवान के दिव्य नामों के जाप का यज्ञ; अस्मि–मैं हूँ; स्थावराणाम्–जड़ पदार्थों में; हिमालयः–हिमालय पर्वत।।
मैं महर्षियों में भृगु और शब्दों ( ध्वनियों या वाणियों ) में एक अक्षर अर्थात् ओंकार हूँ। सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ अर्थात यज्ञों में जपने वाला पवित्र नाम हूँ और स्थिर रहने वालों ( अचल पदार्थों ) में हिमालय पर्वत हूँ॥10.25॥
(‘महर्षीणां भृगुरहम्’ – भृगु , अत्रि , मरीचि आदि महर्षियों में भृगुजी बड़े भक्त , ज्ञानी और तेजस्वी हैं। इन्होंने ही ब्रह्मा , विष्णु और महेश – इन तीनों की परीक्षा करके भगवान विष्णु को श्रेष्ठ सिद्ध किया था। भगवान विष्णु भी अपने वक्षःस्थल पर इनके चरणचिह्न को भृगुलता नाम से धारण किये रहते हैं। इसलिये भगवान ने इनको अपनी विभूति बताया है। ‘गिरामस्म्येकमक्षरम्’ – सबसे पहले तीन मात्रा वाला प्रणव ( ॐ ) प्रकट हुआ। फिर प्रणव से त्रिपदा गायत्री , त्रिपदा गायत्री से वेद और वेदों से शास्त्र , पुराण आदि सम्पूर्ण वाङ्मय जगत् प्रकट हुआ। अतः इन सबका कारण होने से और इन सबमें श्रेष्ठ होने से भगवान ने एक अक्षर – प्रणव ( ॐ ) को अपनी विभूति बताया है। गीता में और जगह भी इसका वर्णन आता है जैसे – ‘प्रणवः सर्ववेदेषु ‘ (7। 8) – सम्पूर्ण वेदों में प्रणव ( ॐ ) मैं हूँ ‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।’ (8। 13) जो मनुष्य – इस एक अक्षर प्रणव ( ॐ ) का उच्चारण करके और भगवान का स्मरण करके शरीर छोड़ कर जाता है वह परमगति को प्राप्त होता है ‘तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्’ (17। 24) वैदिक लोगों की शास्त्रविहित यज्ञ , दान और तपरूप क्रियाएँ प्रणव का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ – मन्त्रों से जितने यज्ञ किये जाते हैं उनमें अनेक वस्तु पदार्थों की , विधियों की आवश्यकता पड़ती है और उनको करने में कुछ न कुछ दोष आ ही जाता है परन्तु जपयज्ञ अर्थात् भगवन्नाम का जप करने में किसी पदार्थ या विधि की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसको करने में दोष आना तो दूर रहा बल्कि सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। इसको करने में सभी स्वतन्त्र हैं। भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में भगवान के नामों में अन्तर तो होता है पर नामजप से कल्याण होता है – इसको हिन्दू , मुसलमान , बौद्ध , जैन आदि सभी मानते हैं। इसलिये भगवान ने जपयज्ञ को अपनी विभूति बताया है। ‘स्थावराणां हिमालयः’ – स्थिर रहने वाले जितने भी पर्वत हैं उन सबमें हिमालय तपस्या का स्थल होने से महान पवित्र है और सबका अधिपति है। गङ्गा , यमुना आदि जितनी तीर्थस्वरूप पवित्र नदियाँ हैं वे सभी प्रायः हिमालय से प्रकट होती हैं। भगवत्प्राप्ति में हिमालयस्थल बहुत सहायक है। आज भी दीर्घ आयु वाले बड़े-बड़े योगी और सन्तजन हिमालय की गुफाओं में साधन-भजन करते हैं। नर-नारायण ऋषि भी हिमालय में जगत के कल्याण के लिये आज भी तपस्या कर रहे हैं। हिमालय भगवान शंकर का ससुराल है और स्वयं शंकर भी इसी के एक शिखर – कैलास पर्वत पर रहते हैं। इसीलिये भगवान ने हिमालय को अपनी विभूति बताया है। संसार में जो कुछ भी विशेषता दिखती है उसको संसार की मानने से मनुष्य उस में फँस जाता है जिससे उसका पतन होता है परन्तु भगवान यहाँ बहुत ही सरल साधन बताते हैं कि तुम्हारा मन जहाँ कहीं और जिस किसी विशेषता को लेकर आकृष्ट होता है वहाँ उस विशेषता को तुम मेरी समझो कि यह विशेषता भगवान की है और भगवान से ही आयी है । यह इस परिवर्तनशील नाशवान संसार की नहीं है। ऐसा समझोगे , मानोगे तो तुम्हारा वह आकर्षण मेरे में ही होगा। तुम्हारे मन में मेरी ही महत्ता हो जायगी। इससे संसार का चिन्तन छूटकर मेरा ही चिन्तन होगा जिससे तुम्हारा मेरे में प्रेम हो जायगा – स्वामी रामसुखदास जी )