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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥10.31॥
पवन:-वायुः पवताम्–पवित्र करने वालों में; अस्मि–हूँ; रामः–श्रीराम; शस्त्रभृताम्–शस्त्रधारियों में; अहम्–मैं; झषाणाम् – मछलियों में; मकर:-मगर; च–भी अस्मि–हूँ; स्रोतसाम्–बहती नदियों में; अस्मि–हूँ; जाह्नवी–गंगा नदी।
पवित्र करने वालों में मैं वायु और शस्त्रधारियों ( शस्त्र चलाने वालों में ) मैं भगवान श्रीराम हूँ, मछलियों ( जलीय जीवों / जलचरों ) में मगर और बहती नदियों ( बहते स्रोतों ) में गंगा हूँ ॥10.31॥
( ‘पवनः पवतामस्मि’ – वायु से ही सब चीजें पवित्र होती हैं। वायु से ही निरोगता आती है। अतः भगवान ने पवित्र करने वालों में वायु को अपनी विभूति बताया है। ‘रामः शस्त्रभृतामहम्’ – ऐसे तो ‘राम’ अवतार हैं , साक्षात् भगवान हैं पर जहाँ शस्त्रधारियों की गणना होती है उन सबमें राम श्रेष्ठ हैं। इसलिये भगवान ने ‘राम ‘को अपनी विभूति बताया है। ‘झषाणां मकरश्चास्मि’ – जलजन्तुओं में ‘मगर’ सबसे बलवान है। इसलिये जलचरों में ‘मगर’ को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। ‘स्रोतसामस्मि जाह्नवी’ – प्रवाहरूप से बहने वाले जितने भी नद , नदी , नाले , झरने हैं उन सबमें ‘गङ्गाजी ‘श्रेष्ठ हैं। ये भगवान की खास चरणोदक हैं। गङ्गाजी अपने दर्शन , स्पर्श आदि से दुनिया का उद्धार करने वाली हैं। मरे हुए मनुष्यों की अस्थियाँ गङ्गाजी में डालने से उनकी सद्गति हो जाती है। इसलिये भगवान ने इनको अपनी विभूति बताया है। वास्तव में इन विभूतियों की मुख्यता न मानकर भगवान की ही मुख्यता माननी चाहिये। कारण कि इन सबमें जो विशेषता – महत्ता देखने में आती है वह भगवान से ही आयी है। 17वें श्लोक में अर्जुन के दो प्रश्न थे – पहला , भगवान को जानने का (मैं आपको कैसे जानूँ ? ) और दूसरा – जानने के उपाय का (किन-किन भावों में मैं आपका चिन्तन करूँ ? )। इन दोनों में से उपाय तो है – विभूतियों में भगवान का चिन्तन करना और उस चिन्तन का फल (परिणाम ) होगा – सब विभूतियों के मूल में भगवान को तत्त्व से जानना। जैसे – शस्त्रधारियों में श्रीराम को और वृष्णियों में वासुदेव (अपने ) को भगवान ने अपनी विभूति बताया। यह तो उस समुदाय में विभूतिरूप से श्रीराम का और वासुदेव का चिन्तन करने के लिये बताया और उनके चिन्तन का फल होगा – श्रीराम को और वासुदेव को तत्त्व से भगवान जान जाना। यह चिन्तन करना और भगवान को तत्त्व से जानना सभी विभूतियों के विषय में समझना चाहिये। संसारमें जहाँ कहीं भी जो कुछ विशेषता , विलक्षणता, सुन्दरता दिखती है उसको वस्तु-व्यक्ति की मानने से फँसावट होती है अर्थात् मनुष्य उस विशेषता आदि को संसार की मानकर उसमें फँस जाता है। इसलिये भगवान ने यहाँ मनुष्यमात्र के लिये यह बताया है कि तुम लोग उस विशेषता , सुन्दरता आदि को वस्तु-व्यक्ति की मत मानो बल्कि मेरी और मेरे से ही आयी हुई मानो। ऐसा मानकर मेरा चिन्तन करोगे तो तुम्हारा संसार का चिन्तन तो छूट जायगा और उस जगह मैं आ जाऊँगा। इसका परिणाम यह होगा कि तुम लोग मेरे को तत्त्व से जान जाओगे। मेरे को तत्त्व से जानने पर मेरे में तुम्हारी दृढ़ भक्ति हो जायगी (गीता 10। 7) स्वामी रामसुखदास जी )