Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10

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विभूतियोग-  दसवाँ अध्याय

 

01-07 भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल

 

 

Shrimad Bhagavad Gita chapter 10श्रीभगवानुवाच

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।

यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ৷৷10.1৷৷

 

 

श्रीभगवान् उवाच-आनन्दमयी भगवान् ने कहा; भूयः-पुनः एव-नि:संदेह; महाबाहो-बलिष्ठ भुजाओं वाला, अर्जुन; शृणु–सुनो; मे–मेरा; परमम् – दिव्य; वचः-उपदेश; यत्-जो; ते-तुमको; अहम्-मैं; प्रीयमाणाय–प्रिय विश्वस्थ मित्र; वक्ष्यामि-कहता हूँ; हितकाम्यया-तुम्हारे कल्याण के लिए।

 

 

आनन्दमयी श्री भगवान बोले – हे महाबाहु अर्जुन! अब आगे मेरे सभी दिव्य , परम रहस्यमयी और प्रभावयुक्त उपदेशों को पुनः सुनो। चूंकि तुम मेरे प्रिय सखा हो और मुझमे अत्यंत प्रेम रखते हो इसलिए मैं तुम्हारे कल्याणार्थ इन्हें तुम्हारे समक्ष प्रकट करूँगा॥10.1॥

 

 

(भूयः एव – भगवान की विभूतियों को तत्त्व से जानने पर भगवान में भक्ति होती है , प्रेम होता है। इसलिये कृपावश होकर भगवान ने 7वें अध्यायमें (8वें श्लोक से 12वें श्लोक तक) कारणरूप से 17 विभूतियाँ और 9वें अध्याय में (16वें श्लोक से 19वें श्लोक तक) कार्यकारणरूप से 37 विभूतियाँ बतायीं। अब यहाँ और भी विभूतियाँ बताने के लिये (टिप्पणी प0 535.1) तथा (गीता 8। 14 एवं 9। 22 / 34 में कही हुई) भक्ति का और भी विशेषता से वर्णन करने के लिये भगवान ‘भूयः एव’ कहते हैं। ‘श्रृणु मे परमं वचः’ – भगवान के मन में अपनी महिमा की बात , अपने हृदय की बात , अपने प्रभाव की बात कहने की बात विशेष रूप से आ रही है (टिप्पणी प0 535.2)। इसलिये वे अर्जुन से कहते हैं कि तू फिर मेरे परम वचन को सुन। दूसरा भाव यह है कि भगवान जहाँ-जहाँ अर्जुन को अपनी विशेष महत्ता , प्रभाव , ऐश्वर्य आदि बताते हैं अर्थात् अपने आप को खोल करके बताते हैं वहाँ-वहाँ वे परम वचन , रहस्य आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे – चौथे अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘रहस्यं ह्येतदुत्तमम्’ पदों से बताते हैं कि जिसने सूर्य को उपदेश दिया था वही मैं तेरे रथ के घोड़े हाँकता हुआ तेरे सामने बैठा हूँ। 18वें अध्याय के 64वें श्लोक में ‘श्रृणु मे परमं वचः’ पदों से यह परम वचन कहते हैं कि तू सम्पूर्ण धर्मों का निर्णय करने की झंझट को छोड़कर एक मेरी शरण में आ जा मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा , चिन्ता मत कर (18। 66)। यहाँ ‘श्रृणु मे परमं वचः’ पदों से भगवान का आशय है कि प्राणियों के अनेक प्रकार के भाव मेरे से ही पैदा होते हैं और मेरे में ही भक्ति भाव रखने वाले सात महर्षि , चार सनकादि तथा चौदह मनु – ये सभी मेरे मन से पैदा होते हैं। तात्पर्य यह है कि सबके मूल में मैं ही हूँ। जैसे आगे 13वें अध्याय में ज्ञान की बात कहते हुए भी 14वें अध्याय के आरम्भ में भगवान ने फिर ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की है ऐसे ही 7वें और 9वें अध्याय में ज्ञान-विज्ञान की बात कहते हुए भी 10वें अध्याय के आरम्भ में फिर उसी विषय को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं। 14वें अध्याय के आरम्भ में भगवान ने ‘परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्’ कहा और यहाँ (10वें अध्याय के आरम्भ में) ‘श्रृणु मे परमं वचः’ कहा इनका तात्पर्य है कि ज्ञानमार्ग में समझ की , विवेक-विचार की मुख्यता रहती है अतः साधक वचनों को सुन करके विचारपूर्वक तत्त्व को समझ लेता है। इसलिये वहाँ ‘ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्’ कहा है। भक्तिमार्ग में श्रद्धा-विश्वास की मुख्यता रहती है । अतः साधक वचनों को सुन करके श्रद्धा-विश्वासपूर्वक मान लेता है। इसलिये यहाँ ‘परमं वचः’ कहा गया है। ‘यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया’ – सुनने वाला वक्ता में श्रद्धा और प्रेम रखने वाला हो और वक्ता के भीतर सुनने वाले के प्रति कृपापूर्वक हित भावना हो तो वक्ता के वचन उसके द्वारा कहा हुआ विषय श्रोता के भीतर अटलरूप से जम जाता है। इससे श्रोता की भगवान में स्वतः रुचि पैदा हो जाती है , भक्ति हो जाती है , प्रेम हो जाता है। यहाँ ‘हितकाम्यया’ पद से एक शङ्का हो सकती है कि भगवान ने गीता में जगह-जगह कामना का निषेध किया है फिर वे स्वयं अपने में कामना क्यों रखते हैं ? इसका समाधान यह है कि वास्तव में अपने लिये भोग , सुख , आराम आदि चाहना ही कामना है। दूसरोंके हितकी कामना कामना है ही नहीं। दूसरोंके हितकी कामना तो त्याग है और अपनी कामनाको मिटानेका मुख्य साधन है। इसलिये भगवान सबको धारण करने के लिये आदर्शरूप से कह रहे हैं कि जैसे मैं हित की कामना से कहता हूँ – ऐसे ही मनुष्यमात्र को चाहिये कि वह प्राणिमात्र के हित की कामना से ही सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करे। इससे अपनी कामना मिट जायगी और कामना मिटने पर मेरी प्राप्ति सुगमता से हो जायगी। प्राणिमात्र के हित की कामना रखने वाले को मेरे सगुण स्वरूप की प्राप्ति भी हो जाती है – ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (गीता 12। 4) और निर्गुण स्वरूप की प्राप्ति भी हो जाती है – ‘लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं ৷৷. सर्वभूतहिते रताः’ (गीता 5। 25)। सम्बन्ध –  परम वचन के विषय में जिसे मैं आगे कहूँगा मेरे सिवाय पूरा-पूरा बताने वाला अन्य कोई नहीं मिल सकता। इसका कारण क्या है ? इसे भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

 

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