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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥10.24॥
पुरोधासाम्–समस्त पुरोहितों में; च–भी; मुख्यम्–प्रमुख; माम्–मुझको; विद्धि–जानो; पार्थ–पृथापुत्र अर्जुन; बृहस्पतिम्–बृहस्पति; सेनानीनाम्–समस्त सेनानायकों में से; अहम्–मैं हूँ; स्कन्दः–कार्तिकेय; सरसाम्–समस्त जलाशयों मे; अस्मि–मैं हूँ; सागरः–समुद्र।
हे पार्थ ! समस्त पुरोहितों में प्रमुख बृहस्पति मुझको जान – मेरा स्वरूप समझ। सेनापतियों में स्कंद ( कार्तिकेय ) और सभी जलाशयों में समुद्र मैं हूँ ॥10.24॥
(‘पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ‘ – संसार के सम्पूर्ण पुरोहितों में और विद्याबुद्धि में बृहस्पति श्रेष्ठ हैं। ये इन्द्र के गुरु तथा देवताओं के कुलपुरोहित हैं। इसलिये भगवान ने अर्जुन से बृहस्पति को अपनी विभूति जानने (मानने ) के लिये कहा है। ‘सेनानीनामहं स्कन्दः’ – स्कन्द (कार्तिकेय ) शंकरजी के पुत्र हैं। इनके छः मुख और बारह हाथ हैं। ये देवताओं के सेनापति हैं और संसार के सम्पूर्ण सेनापतियों में श्रेष्ठ हैं। इसलिये भगवान ने इनको अपनी विभूति बताया है। ‘सरसामस्मि सागरः’ – इस पृथ्वी पर जितने जलाशय हैं उनमें समुद्र सबसे बड़ा है। समुद्र सम्पूर्ण जलाशयों का अधिपति है और अपनी मर्यादा में रहने वाला तथा गम्भीर है। इसलिये भगवान ने इसको अपनी विभूति बताया है। यहाँ इन विभूतियों की जो अलौकिकता दिखती है यह उनकी खुद की नहीं है बल्कि भगवान की है और भगवान से ही आयी है। अतः इनको देखने पर भगवान की ही स्मृति होनी चाहिये – स्वामी रामसुखदास जी )