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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥10.35॥
बृहत् साम–बृहत्साम; तथा – भी; साम्नाम्–सामवेद के स्रोत में; गायत्री – गायत्री मंत्र; छन्दसाम्–समस्त छन्दों में; अहम्–मैं हूँ; मासानाम्–बारह महीनों में; मार्गशीर्ष:-नवम्बर दिसम्बर का महीना; अहम्–मैं; ऋतूनाम्–सभी ऋतुओं में; कुसुम आकर:-वसन्त।
सामवेद के गीतों में और गायन करने योग्य श्रुतियों ( गेय मन्त्रों ) में मुझे बृहत्साम और छन्दों में मुझे गायत्री मन्त्र समझो। मैं बारह मासों में मार्ग शीर्ष और छह ऋतुओं में पुष्प खिलाने वाली वसन्त ऋतु हूँ॥10.35॥
(‘बृहत्साम तथा साम्नाम् ‘ – सामवेद में ‘बृहत्साम’ नामक एक गीत है। इसके द्वारा इन्द्ररूप परमेश्वर की स्तुति की गयी है। अतिरात्रयाग में यह एक पृष्ठ स्तोत्र है। सामवेद में सबसे श्रेष्ठ होने से इस बृहत्साम को भगवान ने अपनी विभूति बताया है (टिप्पणी प0 564)। ‘गायत्री छन्दसामहम्’ – वेदों की जितनी छन्दोबद्ध ऋचाएँ हैं उनमें गायत्री की मुख्यता है। गायत्री को वेदजननी कहते हैं क्योंकि इसी से वेद प्रकट हुए हैं। स्मृतियों और शास्त्रों में गायत्री की बड़ी भारी महिमा गायी गयी है। गायत्री में स्वरूप , प्रार्थना और ध्यान – तीनों परमात्मा के ही होने से इससे परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होती है। इसलिये भगवान ने अपनी विभूति बताया है। ‘मासानां मार्गशीर्षोऽहम् ‘ – जिस अन्न से सम्पूर्ण प्रजा जीवित रहती है उस (वर्षा से होने वाले ) अन्न की उत्पत्ति मार्गशीर्ष महीने में होती है। इस महीने में नये अन्न से यज्ञ भी किया जाता है। महाभारत काल में नया वर्ष मार्गशीर्ष से ही आरम्भ होता था। इन विशेषताओं के कारण भगवान ने मार्गशीर्ष को अपनी विभूति बताया है। ‘ऋतूनां कुसुमाकरः’ – वसन्त ऋतु में बिना वर्षा के ही वृक्ष , लता आदि पत्र-पुष्पों से युक्त हो जाते हैं। इस ऋतु में न अधिक गरमी रहती है और न अधिक सरदी। इसलिये भगवान ने वसन्त ऋतु को अपनी विभूति कहा है। इन सब विभूतियों में जो महत्ता , विशेषता दिखती है , वह केवल भगवान की ही है। अतः चिन्तन केवल भगवान का ही होना चाहिये – स्वामी रामसुखदास जी )