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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
01-07 भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥10.6॥
महाऋषयः–महर्षिः सप्त–सात; पूर्वे–पहले; चत्वारः–चार; मनवः–मनुः तथा—भी; मत् भावाः–मुझसे उत्पन्न; मानसाः–मन से; जाता:-उत्पन्न; येषाम्–जिनकी; लोके–संसार में; इमा:-ये सब; प्रजाः–लोग।
सप्त महर्षिगण और उनसे भी पूर्व में होने वाले चार सनकादि तथा स्वयं भू आदि चौदह मनु– ये सब–के–सब मेरे मेरे मन से अर्थात मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं और मेरे समान प्रभाव वाले अर्थात ईश्वरीय सामर्थ्य से युक्त मुझमें भाव और श्रद्धा भक्ति रखने वाले हैं , जिस मनु और महर्षियों की रची हुई ये चर और अचर रूप सब प्रजाएँ लोक में प्रसिद्ध हैं अर्थात संसार में निवास करने वाले सभी जीव उनसे उत्पन्न हुए हैं॥10.6॥
[पीछे के दो श्लोकों में भगवान ने प्राणियों के भावरूप से 20 विभूतियाँ बतायीं। अब इस श्लोकमें व्यक्तिरूप से 25 विभूतियाँ बता रहे हैं जो कि प्राणियों में विशेष प्रभावशाली और जगत के कारण हैं।] ‘महर्षयः सप्त’ – जो दीर्घ आयु वाले मन्त्रों को प्रकट करने वाले ऐश्वर्यवान दिव्य दृष्टि वाले गुण , विद्या आदि से वृद्ध धर्म का साक्षात करने वाले और गोत्रों के प्रवर्तक हैं – ऐसे सातों गुणों से युक्त ऋषि सप्तर्षि कहे जाते हैं (टिप्पणी प0 540.1)। मरीचि , अङ्गिरा , अत्रि, पुलस्त्य , पुलह , क्रतु और वसिष्ठ – ये सातों ऋषि उपर्युक्त सातों ही गुणों से युक्त हैं। ये सातों ही वेदवेत्ता हैं , वेदों के आचार्य माने गये हैं , प्रवृत्तिधर्म का संचालन करने वाले हैं और प्रजापति के कार्य में नियुक्त किये गये हैं (टिप्पणी प0 540.2)। इन्हीं सात ऋषियों को यहाँ महर्षि कहा गया है। ‘पूर्वे चत्वारः’ – सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमार – ये चारों ही ब्रह्माजी के तप करने पर सबसे पहले प्रकट हुए हैं। ये चारों भगवत्स्वरूप हैं। सबसे पहले प्रकट होने पर भी ये चारों सदा पाँच वर्ष की अवस्था वाले बालकरूप में ही रहते हैं। ये तीनों लोकों में भक्ति , ज्ञान और वैराग्य का प्रचार करते हुए घूमते रहते हैं। इनकी वाणी से सदा ‘हरिः शरणम’ का उच्चारण होता रहता है (टिप्पणी प0 540.3)। ये भगवत्कथा के बहुत प्रेमी हैं। अतः इन चारों में से एक वक्ता और तीन श्रोता बनकर भगवत्कथा करते और सुनते रहते हैं। ‘मनवस्तथा ‘ – ब्रह्माजी के एक दिन (कल्प ) में 14 मनु होते हैं। ब्रह्माजी के वर्तमान कल्प के स्वायम्भुव , स्वारोचिष , उत्तम , तामस, रैवत , चाक्षुष , वैवस्वत , सावर्णि , दक्षसावर्णि , ब्रह्मसावर्णि , धर्मसावर्णि , रुद्रसावर्णि , देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि नाम वाले 14 मनु हैं (टिप्पणी प0 540.4)। ये सभी ब्रह्माजी की आज्ञा से सृष्टि के उत्पादक और प्रवर्तक हैं। ‘मानसा जाताः’ – मात्र सृष्टि भगवान के संकल्प से पैदा होती है परन्तु यहाँ सप्तर्षि आदि को भगवान के मन से पैदा हुआ कहा है। इसका कारण यह है कि सृष्टि का विस्तार करने वाले होने से सृष्टि में इनकी प्रधानता है। दूसरा कारण यह है कि ये सभी ब्रह्माजी के मन से अर्थात् संकल्प से पैदा हुए हैं। स्वयं भगवान ही सृष्टि रचना के लिये ब्रह्मारूप से प्रकट हुए हैं। अतः 7 महर्षि , 4 सनकादि और 14 मनु – इन पचीसों को ब्रह्माजी के मानसपुत्र कहें अथवा भगवान के मानसपुत्र कहें – एक ही बात है। ‘मद्भावाः’ – ये सभी मेरे में ही भाव अर्थात् श्रद्धा-प्रेम रखने वाले हैं। ‘येषां लोकमिमाः प्रजाः’ – संसार में दो तरह की प्रजा है – स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न होने वाली और शब्द से (दीक्षा , मन्त्र , उपदेश आदि से) उत्पन्न होने वाली। संयोग से उत्पन्न होने वाली प्रजा बिन्दुज कहलाती है और शब्द से उत्पन्न होने वाली प्रजा नादज कहलाती है। बिन्दुज प्रजा पुत्र परम्परा से और नादज प्रजा शिष्य परम्परा से चलती है। सप्तर्षियों और चौदह मनुओं ने तो विवाह किया था अतः उनसे उत्पन्न होने वाली प्रजा बिन्दुज है परन्तु सनकादिकों ने विवाह किया ही नहीं अतः उनसे उपदेश प्राप्त करके पारमार्थिक मार्ग में लगने वाली प्रजा नादज है। निवृत्तिपरायण होने वाले जितने सन्त-महापुरुष पहले हुए हैं , अभी हैं और आगे होंगे , वे सब उपलक्षण से उनकी ही नादज प्रजा हैं। चौथे से छठे श्लोक तक प्राणियों के भावों तथा व्यक्तियों के रूप में अपनी विभूतियों का और अपने योग (प्रभाव ) का वर्णन करके अब भगवान आगे के श्लोक में उनको तत्त्व से जानने का फल बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )