Contents
Previous Menu Next
विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
12-18 अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहनेके लिए प्रार्थना
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥10.18॥
विस्तरेण- विस्तार से; आत्मन:-अपनी; योगम्–दिव्य महिमा; विभूतिम्–ऐश्वर्य; च–भी; जनार्दन–जीवों के पालन कर्ता, श्रीकृष्ण; भूयः–पुनः; कथय–वर्णन करें; तृप्तिः–संतोष; हि–क्योंकि; श्रृण्वतः–सुनते हुए; न अस्ति–नहीं है; मे–मेरी; अमृतम्–अमृत।
हे जनार्दन! अपनी योगशक्ति को और विभूति को फिर भी विस्तारपूर्वक कहिए क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती और सुनने की उत्कंठा बनी ही रहती है अर्थात मुझे पुनः अपनी दिव्य महिमा, वैभवों और अभिव्यक्तियों के संबंध में विस्तृत रूप से बताएँ। मैं आपकी अमृत वाणी को सुनकर कभी तृप्त नहीं हो सकता।॥10.18॥
‘विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ‘ – भगवान ने 7वें और 9वें अध्याय में ज्ञान-विज्ञान का विषय खूब कह दिया। इतना कहने पर भी उनकी तृप्ति नहीं हुई इसलिये 10वाँ अध्याय अपनी ओर से ही कहना शुरू कर दिया। भगवान ने 10वाँ अध्याय आरम्भ करते हुए कहा कि तू फिर मेरे परम वचन को सुन। ऐसा सुनकर भगवान की कृपा और महत्त्व की तरफ अर्जुन की दृष्टि विशेषतासे जाती है और वे भगवान से फिर सुनाने के लिये प्रार्थना करते हैं। अर्जुन कहते हैं कि आप अपने योग और विभूतियों को विस्तारपूर्वक फिर से कहिये क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनते हुए तृप्ति नहीं हो रही है। मन करता है कि सुनता ही चला जाऊँ। भगवान की विभूतियों को सुनने से भगवान में प्रत्यक्ष आकर्षण बढ़ता देखकर अर्जुन को लगा कि इन विभूतियों का ज्ञान होने से भगवान के प्रति मेरा विशेष आकर्षण हो जायगा और भगवान में सहज ही मेरी दृढ़ भक्ति हो जायगी। इसलिये अर्जुन विस्तारपूर्वक फिर से कहने के लिये प्रार्थना करते हैं। ‘भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्’ – अर्जुन श्रेय का साधन चाहते हैं (गीता 2। 7 3। 2 5। 1) और भगवान ने विभूति एवं योग को तत्त्व से जानने का फल अपने में दृढ़ भक्ति होना बताया (गीता 10। 7)। इसलिये अर्जुन को विभूतियों को जानने वाली बात बहुत सरल लगी कि मेरे को कोई नया काम नहीं करना है , नया चिन्तन नहीं करना है बल्कि जहाँ कहीं विशेषता आदि को लेकर मन का स्वाभाविक खिंचाव होता है वहीं उस विशेषता को भगवान की मानना है। इससे मन की वृत्तियों का प्रवाह संसार में न होकर भगवान में हो जायगा जिससे मेरी भगवान में दृढ़ भक्ति हो जायगी और मेरा सुगमता से कल्याण हो जायगा। कितनी सीधी , सरल और सुगम बात है इसलिये अर्जुन विभूतियों को फिर कहने के लिये प्रार्थना करते हैं। जैसे कोई भोजन करने बैठे और भोजन में कोई वस्तु प्रिय (बढ़िया) मालूम दे तो उसमें उसकी रुचि बढ़ती है और वह बार-बार उस प्रिय वस्तु को माँगता है पर उस रुचि में दो बाधाएँ लगती हैं – एक तो वह वस्तु अगर कम मात्रा में होती है तो पूरी तृप्तिपूर्वक नहीं मिलती और दूसरी वह वस्तु अधिक मात्रा में होने पर भी पेट भर जाने से अधिक नहीं खायी जा सकती परन्तु भगवान की विभूतियों का और अर्जुन की विभूतियाँ सुनने की रुचि का अन्त ही नहीं आता। कानों के द्वारा अमृतमय वचनों को सुनते हुए न तो उन वचनों का अन्त आता है और न उनको सुनते हुए तृप्ति ही होती है। अतः अर्जुन भगवान से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि आप ऐसे अमृतमय वचन सुनाते ही जाइये। अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार करके भगवान अब आगे के श्लोक से अपनी विभूतियों और योग को कहना आरम्भ करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )