Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10

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विभूतियोग-  दसवाँ अध्याय

 

01-07 भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल

 

 

Shrimad Bhagavad Gita chapter 10यो मामजमनादिं वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌

असम्मूढः मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते 10.3

 

 

यःजो; माम्मुझे; अजम्अजन्मा; अनादिम्जिसका कोई आदि हो, जो आदि रहित हो एवं सबका कारण हो; भी; वेत्तिजानता है; लोकब्रह्माण्ड; महाईश्वरम्परम स्वामी; असम्मूढःमोहरहित; सःवह; मर्त्येषुमनुष्यों में; सर्वपापैःसमस्त पापकर्मो से; प्रमुच्यतेमुक्त हो जाता है।

 

 

वह जो मुझको अजन्मा अर्थात्‌ वास्तव में जन्मरहित, अनादि और समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी और सम्पूर्ण लोकों का महान्‌ ईश्वर तत्त्व के रूप में जानता है अर्थात दृढ़ता से मानता है , वह मनुष्यों में ज्ञानवान्‌ जानकार है और ऐसा ज्ञानी  मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है॥10.3

(अनादि उसको कहते हैं जो आदि रहित हो एवं सबका कारण हो)

 

(‘यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्’ – पीछे के श्लोक में भगवान के प्रकट होने को जानने का विषय नहीं बताया है। इस विषय को तो मनुष्य भी नहीं जानता पर जितना जानने से मनुष्य अपना कल्याण कर ले उतना तो वह जान ही सकता है। वह जानना अर्थात् मानना यह है कि भगवान अज अर्थात् जन्मरहित हैं। वे अनादि हैं अर्थात् यह जो काल कहा जाता है जिसमें आदि अनादि शब्दों का प्रयोग होता है । भगवान उस काल के भी काल हैं। उन कालातीत भगवान में काल का भी आदि और अन्त हो जाता है। भगवान सम्पूर्ण लोकों के महान् ईश्वर हैं अर्थात् स्वर्ग , पृथ्वी और पातालरूप जो त्रिलोकी है तथा उस त्रिलोकी में जितने प्राणी हैं और उन प्राणियों पर शासन करने वाले (अलग-अलग अधिकारप्राप्त) जितने ईश्वर (मालिक) हैं उन सब ईश्वरों के भी महान् ईश्वर भगवान् हैं। इस प्रकार जाननेसे अर्थात् श्रद्धाविश्वासपूर्वक दृढ़ता से मानने से मनुष्य को भगवान के अज , अविनाशी और लोक महेश्वर होने में कभी किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं होता। ‘असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते’ – भगवान को अज , अविनाशी और लोकमहेश्वर जानने से मनुष्य पापों से मुक्त कैसे होगा ? भगवान जन्मरहित हैं , नाशरहित हैं अर्थात् उनमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। वे अजन्मा तथा अविनाशी रहते हुए भी सबके महान् ईश्वर हैं। वे सब देश में रहने के नाते यहाँ भी हैं , सब समय में होने के नाते अभी भी हैं , सबके होने के नाते मेरे भी हैं और सबके मालिक होने के नाते मेरे अकेले के भी मालिक हैं – इस प्रकार दृढ़ता से मान ले। इसमें सन्देह की गन्ध भी न रहे। साथ ही साथ यह जो क्षणभङ्गुर संसार है जिसका प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है और जिसको जिस क्षण में जिस रूप में देखा है उसको दूसरे क्षण में , उस रूप में दुबारा कोई भी देख नहीं सकता क्योंकि वह दूसरे क्षण में वैसा रहता ही नहीं – इस प्रकार संसार को यथार्थरूप से जान ले। जिसने अपने सहित सारे संसार के मालिक भगवान को दृढ़ता से मान लिया है और संसार की क्षणभङ्गुरता को तत्त्व से ठीक जान लिया है उसका संसार में ‘मैं ‘और ‘मेरापन’ रह ही नहीं सकता बल्कि एकमात्र भगवान में ही अपनापन हो जाता है। तो फिर वह पापों से मुक्त नहीं होगा तो और क्या होगा ? ऐसा मूढ़तारहित मनुष्य ही भगवान को तत्त्व से अज , अविनाशी और लोकमहेश्वर जानता है और वही सब पापों से मुक्त हो जाता है। उसके क्रियमाण , संचित आदि सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य को इस वास्तविकता का अनुभव करने की आवश्यकता है केवल तोते की तरह सीखने की आवश्यकता नहीं। तोते की तरह सीखा हुआ ज्ञान पूरा काम नहीं देता।असम्मूढ़ता क्या है ? संसार (शरीर) किसी के भी साथ कभी रह नहीं सकता तथा कोई भी संसार के साथ कभी रह नहीं सकता और परमात्मा किसी से भी कभी अलग हो नहीं सकते और कोई भी परमात्मा से कभी अलग हो नहीं सकता – यह वास्तविकता है। इस वास्तविकता को न जानना ही सम्मूढ़ता है और इसको यथार्थ जानना ही असम्मूढ़ता है। यह असम्मूढ़ता जिसमें रहती है वह मनुष्य असम्मूढ़ कहा जाता है। ऐसा असम्मूढ़ पुरुष मेरे सगुण-निर्गुण , साकार-निराकार रूप को तत्त्व से जान लेता है तो उसे मेरी लीला , रहस्य , प्रभाव , ऐश्वर्य आदि में किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। पहले श्लोक में भगवान ने जिस परम वचन को सुनने की आज्ञा दी थी उसको अब आगे के तीन श्लोकों में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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