Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10

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विभूतियोग-  दसवाँ अध्याय

 

19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का वर्णन

 

 

Vibhooti Yog Bhagavad Gita chapter 10दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्‌

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्‌ 10.38

 

 

दण्ड:-दण्ड; दमयताम्अराजकता को रोकने वाले साधनों के बीच; अस्मिहूँ; नीतिःसदाचार; अस्मिहूँ; जिगीषताम्विजय की इच्छा रखने वालों में; मौनम्मौन; और; एवभी; अस्मिहूँ; गुह्यानाम्रहस्यों में : ज्ञानम्ज्ञान; ज्ञानवताम्ज्ञानियों में; अहम्मैं हूँ।

 

 

मैं दमन करने वालों का दंड ( शक्ति ) हूँ अर्थात अराजकता को रोकने वाले साधनों के बीच न्यायोचित दण्ड, विजय की इच्छा रखने वालों में उनकी उपयुक्त नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य गोपनीय भावों या रहस्यों में मौन हूँ और ज्ञानियों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ॥10.38

 

 

(‘दण्डो दमयतामस्मि ‘ – दुष्टों को दुष्टता से बचाकर सन्मार्ग पर लाने के लिये दण्डनीति मुख्य है। इसलिये भगवान ने इसको अपनी विभूति बताया है। ‘नीतिरस्मि जिगीषताम् ‘ – नीति का आश्रय लेने से ही मनुष्य विजय प्राप्त करता है और नीति से ही विजय ठहरती है। इसलिये नीति को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। ‘मौनं चैवास्मि गुह्यानाम् ‘ – गुप्त रखने योग्य जितने भाव हैं उन सबमें मौन (वाणी का संयम अर्थात् चुप रहना) मुख्य है क्योंकि चुप रहने वाले के भावों को हरेक व्यक्ति नहीं जान सकता। इसलिये गोपनीय भावों में भगवान ने मौन को अपनी विभूति बताया है। ‘ज्ञानं ज्ञानवतामहम्’ – संसार में कला-कौशल आदि को जानने वालों में जो ज्ञान (जानकारी) है वह भगवान की विभूति है। तात्पर्य है कि ऐसा ज्ञान अपने में और दूसरों में देखने में आये तो इसे भगवान की ही विभूति माने। इन सब विभूतियों में जो विलक्षणता है वह इनकी व्यक्तिगत नहीं है बल्कि परमात्मा की ही है। इसलिये परमात्मा की तरफ ही दृष्टि जानी चाहिये – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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