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विभूतियोग- दसवाँ अध्याय
01-07 भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥10.4॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥10.5॥
बुद्धिः–बुद्धि; ज्ञानम्–ज्ञान; असम्मोहः–विचारों की स्पष्टता; क्षमा–क्षमाः सत्यम्–सत्यता; दमः–इन्द्रियों पर संयम; शमः–मन का निग्रह; सुखम्–आनन्द; दु:खम्–दुख; भवः–जन्म; अभावः–मृत्यु; भयम्–भय; च–और; अभयम्–निर्भीकता; एव–भी; च–और; अहिंसा–अहिंसा; समता–समभाव; तुष्टि:-सन्तोष; तपः–तपस्या; दानम्–दान; यश:-कीर्ति; अयश:-अपकीर्ति; भवन्ति–होना; भावाः–गुण; भूतानाम्–जीवों की; मत्तः–मुझसे; एव–निश्चय ही; पृथक् विधा:-भिन्न–भिन्न गुण।
बुद्धि या निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, विचारों की स्पष्टता , क्षमा, सत्य, इंद्रियों को वश में करना , मन पर नियंत्रण , सुख, दुःख, जन्म , मृत्यु , भय, अभय , अहिंसा, समता, संतोष , तप , दान, यश, अपयश – ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के ( बीस ) भाव मुझसे ही उत्पन्न होते हैं॥10.4-10.5॥
(स्वधर्म के आचरण से इंद्रियादि को तपाकर शुद्ध करने का नाम तप है)
बुद्धिः – उद्देश्य को लेकर निश्चय करने वाली वृत्ति का नाम बुद्धि है। ‘ज्ञानम्’ ~ सार-असार , ग्राह्य-अग्राह्य , नित्य-अनित्य , सत् – असत , उचित-अनुचित , कर्तव्य-अकर्तव्य – ऐसा जो विवेक अर्थात् अलग-अलग जानकारी है उसका नाम ज्ञान है। यह ज्ञान (विवेक) मानवमात्र को भगवान से मिला है। ‘असम्मोहः’ – शरीर और संसार को उत्पत्तिविनाशशील जानते हुए भी उनमें मैं और मेरापन करने का नाम सम्मोह है और इसके न होने का नाम असम्मोह है। ‘क्षमा’ – कोई हमारे प्रति कितना ही बड़ा अपराध करे , अपनी सामर्थ्य रहते हुए भी उसे सह लेना और उस अपराधी को अपनी तथा ईश्वर की तरफ से यहाँ और परलोक में कहीं भी दण्ड न मिले – ऐसा विचार करने का नाम क्षमा है। ‘सत्यम् ‘ – सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति के लिये सत्यभाषण करना अर्थात् जैसा सुना , देखा और समझा है उसी के अनुसार अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके दूसरों के हित के लिये न ज्यादा , न कम – वैसा का वैसा कह देने का नाम सत्य है। ‘दमः शमः’ – परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य रखते हुए इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाकर अपने वश में करने का नाम दम है और मन को सांसारिक भोगों के चिन्तन से हटाने का नाम ‘शम’ है। ‘सुखं दुःखम्’ – शरीर , मन , इन्द्रियों के अनुकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर हृदय में जो प्रसन्नता होती है उसका नाम ‘सुख ‘है और प्रतिकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर हृदय में जो अप्रसन्नता होती है उसका नाम ‘दुःख’ है। ‘भवोऽभावः’ – सांसारिक वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति , भाव आदि के उत्पन्न होने का नाम भव है और इन सबके लीन होने का नाम अभाव है। ‘भयं चाभयमेव च’ – अपने आचरण , भाव आदि शास्त्र और लोकमर्यादा के विरुद्ध होने से अन्तःकरण में अपना अनिष्ट होने की जो एक आशङ्का होती है उसको ‘भय ‘कहते हैं। मनुष्य के आचरण – भाव आदि अच्छे हैं , वह किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता , शास्त्र और सन्तों के सिद्धान्त से विरुद्ध कोई आचरण नहीं करता तो उसके हृदय में अपना अनिष्ट होने की आशङ्का नहीं रहती अर्थात् उसको किसी से भय नहीं होता। इसी को ‘अभय’ कहते हैं।
‘अहिंसा’ – अपने तन , मन और वचन से किसी भी देश , काल , परिस्थिति आदि में किसी भी प्राणी को किञ्चिन्मात्र भी दुःख न देने का नाम ‘अहिंसा’ है। ‘समता’ ~ तरह-तरह की अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि के प्राप्त होने पर भी अपने अन्तःकरण में कोई विषमता न आने का नाम ‘समता’ है। ‘तुष्टिः’ – आवश्यकता ज्यादा रहने पर भी कम मिले तो उसमें सन्तोष करना तथा और मिले – ऐसी इच्छा का न रहना ‘तुष्टि’ है। तात्पर्य है कि मिले अथवा न मिले , कम मिले अथवा ज्यादा मिले आदि हर हालत में प्रसन्न रहना ‘तुष्टि ‘है। ‘तपः’ – अपने कर्तव्य का पालन करते हुए जो कुछ कष्ट आ जाय , प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय उन सबको प्रसन्नतापूर्वक सहने का नाम ‘तप’ है। एकादशी व्रत आदि करने का नाम भी ‘तप’ है। ‘दानम्’ – प्रत्युपकार और फल की किञ्चिन्मात्र भी इच्छा न रखकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी शुद्ध कमाई का हिस्सा सत्पात्र को देने का नाम ‘दान’ है (गीता 17। 20)। ‘यशोऽयशः’ – मनुष्य के अच्छे आचरणों , भावों और गुणों को लेकर संसार में जो नाम की प्रसिद्धि , प्रशंसा आदि होते हैं उनका नाम ‘यश’ है। मनुष्य के बुरे आचरणों , भावों और गुणों को लेकर संसार में जो नाम की निन्दा होती है उसको ‘अयश ‘ (अपयश ) कहते हैं। ‘भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ‘ – प्राणियों के ये पृथक – पृथक और अनेक तरह के भाव मेरे से ही होते हैं अर्थात् उन सबको सत्ता , स्फूर्ति , शक्ति , आधार और प्रकाश मुझ लोकमहेश्वर से ही मिलता है। तात्पर्य है कि तत्त्व से सबके मूल में मैं ही हूँ। यहाँ ‘मत्तः’ पद से भगवान का योग , सामर्थ्य , प्रभाव और ‘पृथग्विधाः’ पद से अनेक प्रकार की अलग-अलग विभूतियाँ जाननी चाहिये। संसार में जो कुछ विहित तथा निषिद्ध हो रहा है शुभ तथा अशुभ हो रहा है और संसार में जितने सद्भाव तथा दुर्भाव हैं वह सब की सब भगवान की लीला है – इस प्रकार भक्त भगवान को तत्त्व से समझ लेता है तो उसका भगवान में अविकम्प (अविचल) योग हो जाता है (गीता 10। 7)। यहाँ प्राणियों के जो 20 भाव बताये गये हैं उनमें 12 भाव तो एक-एक (अकेले ) हैं और वे सभी अन्तःकरण में उत्पन्न होने वाले हैं और भय के साथ आया हुआ अभय भी अन्तःकरण में पैदा होने वाला भाव है तथा बचे हुए 7 भाव परस्पर विरोधी हैं। उनमें से भव (उत्पत्ति) , अभाव , यश और अयश – ये चार तो प्राणियों के पूर्वकृत कर्मों के फल हैं और सुख, दुःख तथा भय – ये तीन मूर्खता के फल हैं। इस मूर्खता को मनुष्य मिटा सकता है। यहाँ प्राणियों के 20 भावों को अपने से पैदा हुए और अपनी विभूति बताने में भगवान का तात्पर्य है कि ये 20 भाव तो पृथक – पृथक हैं पर इन सब भावों का आधार मैं एक ही हूँ। इन सबके मूल में मैं ही हूँ , ये सभी मेरे से ही होते हैं एवं मेरे से ही सत्तास्फूर्ति पाते हैं। 7वें अध्याय के 12वें श्लोक में भी भगवान ने ‘मत्तः एव ‘ पदों से बताया है कि सात्त्विक , राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं अर्थात् उनके मूल में मैं ही हूँ , वे मेरे से ही होते हैं और मेरे से ही सत्तास्फूर्ति पाते हैं। अतः यहाँ भी भगवान का आशय विभूतियों के मूल तत्त्व की तरफ साधक की दृष्टि कराने में ही है। विशेष बात- साधक संसार को कैसे देखे ? ऐसे देखे कि संसार में जो कुछ क्रिया , पदार्थ , घटना आदि है वह सब भगवान का रूप है। चाहे उत्पत्ति हो , चाहे प्रलय हो , चाहे अनुकूलता हो , चाहे प्रतिकूलता हो , चाहे अमृत हो , चाहे मृत्यु हो , चाहे स्वर्ग हो , चाहे नरक हो यह सब भगवान की लीला है। भगवान की लीला में बालकाण्ड भी है , अयोध्याकाण्ड भी है , अरण्यकाण्ड भी है और लङ्काकाण्ड भी है। पुरियों में देखा जाय तो अयोध्यापुरी में भगवान का प्राकट्य है । राजा , रानी और प्रजा का वात्सल्यभाव है। जनकपुरी में रामजी के प्रति राजा जनक , महारानी सुनयना और प्रजा के विलक्षण-विलक्षण भाव हैं। वे रामजी को दामादरूप से खिलाते हैं , खेलाते हैं , विनोद करते हैं। वन में (अरण्यकाण्ड में) भक्तों का मिलना भी है और राक्षसों का मिलना भी। लंकापुरी में युद्ध होता है , मारकाट होती है , खून की नदियाँ बहती हैं। इस तरह अलग-अलग पुरियों में , अलग-अलग काण्डों में भगवान की तरह-तरह की लीलाएँ होती हैं परन्तु तरह-तरह की लीलाएँ होते हुए भी रामायण एक है और ये सभी लीलाएँ एक ही रामायण के अङ्ग हैं तथा इन अङ्गों से रामायण साङ्गोपाङ्ग होती है। ऐसे ही संसार में प्राणियों के तरह-तरह के भाव हैं , क्रियाएँ हैं। कहीं पर कोई हँस रहा है तो कहीं पर कोई रो रहा है , कहीं पर विद्वद्गोष्ठी हो रही है तो कहीं पर आपस में लड़ाई हो रही है , कोई जन्म ले रहा है तो कोई मर रहा है आदि आदि जो विविध भाँति की चेष्टाएँ हो रही हैं वे सब भगवान की लीलाएँ हैं। लीलाएँ करने वाले ये सब भगवान के रूप हैं। इस प्रकार भक्त की दृष्टि हरदम भगवान पर ही रहनी चाहिये क्योंकि इन सबके मूल में एक परमात्मतत्त्व ही है – स्वामी रामसुखदास जी )